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आध्यात्मिक आलोक
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ठिकाना नहीं रह जाता । भय और क्रोध के वेग को जीतना आसान नहीं फिर भी वह जीता जा सकता है, मगर राग का वेग अतीव प्रबल होता है । उसे जीत लेना अत्यन्त कठिन है । आदिवासी कहलाने वाले लोग आज भी खुले जंगलों में पढ़ें मिल जाते हैं, जहां शेर जैसे हिंस्र जानवरों का आवागमन होता रहता है । वे निर्भय रह कर जंगल में निवास करते हैं । भय को जीतना उनकी प्रकृति के अन्तर्गत है। किन्तु राग को जीतना इतना सरल नहीं है । इसके लिए ज्ञान की आवश्यकता है । ज्ञान भी बाह्य एवं शब्दस्पर्शी मात्र नहीं मगर आत्मस्पर्शी होना चाहिए ।
सिंहगुफावासी मुनि ने राग की दुर्जेयता को नहीं समझा । उसने भय की वृत्ति पर विजय पाई थी और सोचा था कि भय को जीतना ही कठिन है । जिसने भय को जीत लिया उसके लिए रागवृत्ति को जीतना चुटकियों का खेल है। परन्तु वह राग की आग में से गुजरा नहीं था । शूरवीर पुरुष पैने प्रहारों को जीत लेता है परन्तु रमणी के मृदुल प्रहारों के सामने उसे भी हार जाना पड़ता है । उन प्रहारों को जीतने के लिए फौलाद का कलेजा चाहिए । इसी कारण कहा गया है कि महापुरुषों का चित्त वज्र से भी अधिक कठोर और फूल से भी अधिक कोमल होता है । दूसरे को दुःख में देख कर उनका हृदय अनायास ही मुरझा जाता है परन्तु अपने प्रति वे वज्र के समान होते हैं । कठिन से कठिन उपसर्ग भी उनके दिल को हिला नहीं सकते।
जोश की स्थिति में सिंहगुफावासी पाटलीपुत्र में रूपकोषा के घर पहुँचे । उन्होंने उसके घर में निवास करके चार मास (चातुर्मास्य) व्यतीत करने की अनुमति मांगी । वेश्या उनके आत्मबल की परीक्षा करना चाहती थी । अतएव उसने विनम्र एवं मधुर स्वर में कहा-"मेरा बड़ा सौभाग्य है कि आपका मेरे द्वार पर पदार्पण हुआ । समाज में मेरी जैसी महिलाएं गर्दा की दृष्टि से देखी जाती हैं किन्तु आप लोकोत्तर दृष्टि से सम्पन्न हैं । आपके लिए प्राणीमात्र समान हैं। इसी कारण इतने बड़े नगर को छोड़ कर यहां पधारे हैं । किन्तु आप पहले भिक्षा ग्रहण कर लीजिए, बाद में धर्म वृद्धि की बात कीजिएगा ।"
अर्थी अर्थलाभ का पात्र होता है और कामी कामलाभ का पात्र होता है। राजिया कवि ने कहा है -
कहणी जाय निकाम, आछोड़ी आणी उकत ।
दामा लोभी दाम, रंजे न बातां 'राजिया' ।। वेश्या बोली धर्म की बात करने से पहले पेटपूर्ति कर लीजिए ।