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आध्यात्मिक आलोक व्रतमय जीवन व्यतीत करने वाले को तुच्छ औषधि का सेवन नहीं करना चाहिए क्योंकि उसमें खाद्य अंश कम होता है और फैंकने योग्य अंश अधिक होता है।
__ महावीर स्वामी का कथन है-“हे मानव ! तु वृथा पाप के भार को क्यों बढ़ाता है ? पदार्थों का सेवन इस प्रकार कर कि तेरा काम चले और वस्तु का विनाश न हो | भोगलालसा पर अंकुश लगाएगा तो कर्मबन्ध पर स्वतः अंकुश लग • जाएगा | जीवन बनाना है, जीवन से कुछ महत्वपूर्ण लाभ उठाना है और
आत्म-साधना की यात्रा में बिना टकराए लक्ष्य पर पहुंचना है तो भोग और उपभोग की सामग्री पर विवेकपूर्ण नियन्त्रण करना आवश्यक है । यदि ठीक तरह से यह नियन्त्रण स्थापित हो जाय और जीवन में संयम और सादगी आ जाय तो बड़े-बड़े राक्षसी कल-कारखानों की आवश्यकता ही न हो । इस प्रकार के कारखानों की स्थापना महा तृष्णा की बदौलत होती है । उनमें कितने ही लोगों की हत्या और शोषण होता है, कितने ही गरीबों के हाथ-पैर कटते हैं और न जाने कितने लोगों की आजीविका नष्ट होती है । हजारों मनुष्य अपने हाथों से जो निर्माण करते हैं, उसे एक बड़ा कारखाना थोड़े-से लोगों की सहायता से कर डालता है । परिणामस्वरूप बहुत से लोग बेकार और बेरोजगार फिरते हैं उनके पास कोई आजीविका नहीं बचती। जिन देशों की आबादी अल्प संख्यक हो वहां कल-कारखानों की उपयोगिता समझ में आ सकती है किन्तु जिस देश में इतनी विपुल जनसंख्या हो और वह निरन्तर बढ़ती ही जा रही हो, वहां यन्त्रों से काम लेना और मानव-शक्ति को व्यर्थ बना देना बुद्धिमत्ता नहीं है । धार्मिक दृष्टि से भी यह महारंभ है ।".
जो श्रावकधर्म की आराधना करता है उसे चिन्तन करना है, विचार करना है, आत्मा को भारी बनाने वाले कार्यों को कम करना है और अपने लक्ष्य की ओर गति तीव्र करनी है। यह यान्त्रिक पद्धति से चढ़ने का मार्ग नहीं है, जीवन तय करने का मार्ग है । यंत्र के सहारे भारी वस्तुएं ऊपर उठा ली जाती हैं, मगर भारी जीवन को ऊंचा उठाने के लिए कोई यन्त्र नहीं है । दूसरे के सहारे ऊँचा चढ़ना अस्थायी है, अल्पकालिक है । इस प्रकार चढ़ना वास्तविक चढ़ना नहीं है । अध्यात्म की उच्च, उच्चतर और उच्चतम भूमिका पर स्वयं के पुरुषार्थ से ही चढ़ा जाता है । भगवान महावीर ने उच्च स्वर में घोष किया है
'तुममेव तुमं मित्ता, किं बहिया मित्तमिच्छसि ।' .. हे आत्मन् ! तू अपना मित्र आप ही है । क्यों बाहरी मित्र ( सहायक ) की अपेक्षा रखता है।