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आध्यात्मिक आलोक
325 चतुर रूपकोषा ने दुनिया देखी थी। वह उड़ती चिड़िया को पहचानती थी। मुनि के मन का भाव उससे छिपा नहीं रहा । उसने समझ लिया कि यह मुनि स्थूलभद्र की बराबरी करना चाहते हैं, अन्यथा इतने बड़े पाटलीपुत्र को छोड़ कर मेरे यहां चौमासा व्यतीत करने का क्या हेतु हो सकता है ?
इन मुनि का शरीर तो स्थूलभद्र के शरीर के समान था, किन्तु स्थूलभद्र के अन्तर में विराजमान मनोदेवता के समान मन नहीं था । रूपकोषा ने सोचा-मुनि को सीख मिलनी चाहिए किन्तु पतित नहीं होने देना चाहिए | अच्छा हुआ कि वे मेरे भवन में आए; अन्यत्र कहीं चले गए होते तो न जाने क्या होता ?
मन ही मन इस प्रकार सोच कर रूपकोषा ने कहा - आप प्रसत्रतापूर्वक यहां निवास करें, किन्तु मेरी मांग आपको पूर्ण करनी होगी।
मुनि नहीं समझ पाए कि इसकी मांग क्या बला है ? वह तो इसी धुन में थे कि किसी प्रकार इसके यहां ठहरने को स्थान मिल जाय । वे प्रमाणपत्र लेकर गुरु के पास लौटना चाहते थे और अपने को स्थूलभद्र के समकक्ष साधक प्रमाणित करना चाहते थे।
बन्धुओ ! ये अतीत की गाथाएं मनोरंजन की सामग्री नहीं, सजीव बोध-पाठ हैं । साधक के जीवन में किस प्रकार उतार चढ़ाव आते हैं, कैसे-कैसे उत्थान-पतन के अवसर आते हैं, यह वात इन गाथाओं से समझी जा सकती है। जो इनके मर्म तक पहुँच कर अपने जीवन को उन्नत और निर्मल बनाएंगे, वे इहलोक-परलोक को कल्याणमय बना सकेंगे।