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आध्यात्मिक आलोक घृत कुम्भसमा नारी, तप्तांगारसमः पुमान् ।
तस्मात् घृतस्य कुम्भं च न तत्र स्थापयेद बुध : ।। नारी घी का घड़ा है और पुरुष तपा हुआ अंगार । इन दोनों को एक जगह रखने वाला पुरुष बुद्धिमान नहीं कहा जा सकता।
गुरु संभूतिविजय बड़ी दुविधा में थे । उनका मन अनुमति देने को तैयार न था । वे उस मुनि के संयम को संकट में नहीं डालना चाहते थे । भला कौन ऐसा गुरु होगा जो अपने शिष्य को असंयम के गहरे गर्त में गिराने की इच्छा करे ? गुरु
और शिष्य का सम्बन्ध संयम की वृद्धि के लिए होता है, अन्यथा पिता, भ्राता आदि से नाता तोड़ कर गुरु के नाम पर नया नाता जोड़ने की आवश्यकता ही क्या थी ? एक साधना का अभिलाषी नौसिखिया किसी अनुभवी की शरण में जाता है और निवेदन करता है-"भगवन् । मैं साधना के इस अपरिचित और गहन पथ पर चलना चाहता हूँ। आप इस पथ के अनुभवी हैं । इस मार्ग में आने वाली विघ्न-बाधाओं से परिचित हैं । अनुग्रह करके मुझे अपनी शरण में लीजिए, मेरा पथ-प्रदर्शन कीजिए और संसार-अटवी से पार होने में मेरी सहायता कीजिए।"
अनुभवी साधक सोचता है-"इसे ग्रहण करने के कारण मेरी एकाग्र साधना में कुछ बाधा आएगी, मगर दूसरे की साधना में निस्पृह भाव से सहायक होना भी साधना का एक अंग है । इसके अतिरिक्त जिन शासन की परम्परा को निरन्तर चालू रखने के लिए भी यह आवश्यक है कि साधना क्षेत्र में आने वाले अनुभवहीन जनों का मार्गदर्शन किया जाय । अगर मेरे गुरुजी ने मुझे शरण न दी होती तो मैं आज इस स्थिति में कैसे आता ? जब मैंने किसी की छत्रछाया ली तो उस ऋण को चुकाने के लिए भी यह आवश्यक है कि मैं किसी अन्य को अपनी छत्रछाया प्रदान करूं।"
___ गुरु और शिष्य के सम्बन्ध का यह शास्त्रीय आधार है। पुराने परिवार को त्याग कर नया परिवार बनाना इस सम्बन्ध का उद्देश्य नहीं है । हुकूमत चलाने या प्रतिष्ठा पाने के लिए चेलों की फौज नहीं बनाई जाती । ऐसी स्थिति में गुरु अपने शिष्य को ऐसी ही अनुमति देगा जिससे उसके संयम की वृद्धि हो । वह ऐसा आदे। कदापि न देगा जिससे संयम को खतरा उपस्थित हो जाए।
गुरु संभूतिविजय इसी कारण उन मुनियों की प्रार्थना को सुनकर 'हो नहीं कह सके । वे मौन ही रह गए।