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आध्यात्मिक आलोक पापों से बचना चाहता है उसे भोगोपभोग के साधनों में कमी करनी चाहिए । कमी . करने का अच्छा उपाय यही है कि उनका परिमाण निश्चित कर लिया जाय और . धीरे-धीरे यथायोग्य उसमें भी कमी करता जाय । ऐसा करने वाला स्वयं ही अनुभव करने लगेगा कि उसके जीवन में शान्ति बढ़ती जा रही है, एक प्रकार की लघुता और निराकुलता आ रही है।
भोगोपभोग के दो प्रकार बतलाए गए हैं, यथा6) भोजन सम्बन्धी, जैसे खाना पहनना, आदि । । (२) कर्म सम्बन्धी । किसी भुक्तभोगी ने ठीक ही कहा है
पेट राम ने बुरा बनाया, खाने को मांगे रोटी ।
पड़े पाव भर चून पेट में, तब फुरके बोटी-चोटी ।। ।
भोगोपभोग की प्रवृत्ति के वशीभूत होकर मनुष्य ऐसे क्रूरतापूर्ण कार्य कर डालता है कि जिनमें पशु-पक्षियों की हत्या होती है । भौगोपभोग की लालसा की बदौलत ही मनुष्य रक्त की धाराएं प्रवाहित करता है। उसे पाप करते समय तो कुछ जोर नहीं पड़ता, हँसते-हँसते भयानक पाप कर डालता है, मगर उनका फल भोगते समय भीषण स्थिति होती है। हम अनेक मानवों और मानवेतर प्राणियों को घोर व्यथा, अतिशय दारुण वेदना भोगते और छटपटाते देखते हैं । यह सब उनके पापकर्म का ही प्रतिफल है । अगर इस तथ्य को मानद भलीभाँति समझ ले तो भौगोपभोग के पीछे न पड़ कर बहुत से पापों से बच सकेगा।
हिंसा को सहन करने वाला और उसमें सहयोग देने वाला भी हिंसा के फल का भागी होता है । प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से बलि प्रथा को सहकार देना महान पातक है। जिन कार्यों से हिंसा को प्रोत्साहन मिलता हो और जिन स्थानों में हिंसा होती हो और जो कर्मबन्ध के कारण हों उनके साथ असहयोग करना चाहिए। ऐसा करने से दो लाभ होगे - अज्ञानतावश ऐसे दुष्कर्म करने वालों का .. हृदय-परिवर्तन होगा और स्वयं को पाप से बचाया जा सकेगा । अज्ञानी जनों को सही राह न बतलाना भी अपने कर्तव्य से मुंह मोड़ना है । पुण्य योग से जिसे विचार और विवेक प्राप्त हुआ है, जिसने धर्म के समीचीन स्वरूप को समझा है और जिसे धर्म के प्रसार करने की लगन है, उसका यह परम कर्तव्य है कि वह अज्ञानी जनों को सन्मार्ग दिखलाए । इस दिशा में अपने कर्तव्य का अवश्य पालन करना .
। यह धर्म की बड़ी से बड़ी प्रभावना है।