________________
304
आध्यात्मिक आलोक जं अण्णाणी कम्म, खवेइ कोडीहिं ।
तं णाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ ऊसास मेतेणं ।। अज्ञानी जीव करोड़ों जन्मों में जितने कर्म खपाता है, ज्ञानीजन तीन गुप्तियों से गुप्त होकर एक उच्छ्वास जितने अल्प समय में ही उतने कर्मों का क्षय कर डालता है । कहां करोड़ों जन्म और कहां एक उच्छ्वास जितना समय ! इस अन्तर का कारण अन्तरंग में विद्यमान ज्ञान का आलोक ही है।
ज्ञानी पुरुष के विहार पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाया गया है । वह जहां चाहे विचरण कर सकता है और जितनी भी दूर जाना चाहे, जा सकता है । गंगा का पानी फैलकर सुखद वातावरण का निर्माण करता है । क्षारयुक्त, विषाक्त और गटर के गन्दे जल पर नियन्त्रण की आवश्यकता है । अज्ञानी के साथ विषय, कषाय
और बन्ध का विष फैलता है, जिससे उसकी आत्मा तो मलिन होती ही है, पर समाज का वातावरण भी कलुषित बनता है। फोड़े के बढ़ने से हानि की आशंका • की जाती है, स्वस्थ अंग के बढ़ने में कोई खतरा नहीं, वह स्वस्थता का चिन्ह माना
जाता है।
गृहस्थ के जीवन में हिंसा और परिग्रह का विष घुला रहता है । उसके विस्तार से विष वृद्धि की संभावना रहती है, अतएव उस पर नियन्त्रण की आवश्यकता है । यही कारण है कि उसके गमनागमन पर प्रतिबन्ध लगाया गया है और उसे सीमित करने का विधान किया गया है । साधु के लिए ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है। उसका क्षेत्र सीमित नहीं किया गया, बल्कि उसके लिए एक स्थान पर न रहकर भ्रमण करते रहने का विधान किया गया है । उसे एक जगह नहीं टिकना है, क्योंकि वह 'अनगार' है और उसे भ्रमण ही करते रहना है, क्योंकि उसे भ्रमर (भ्रमणशील) की । उपमा दी गई है । कहा है -
बहता पानी निर्मला, पड़ा गन्दीला होय ।
साधु तो रमता भला, दाग न लागे कोय ।। साधु एक स्थान पर स्थिर हो जाएगा तो दूर-दूर तक उसके ज्ञान प्रकाश की किरणें नहीं फैल सकेंगी । वह चलता-फिरता रहेगा तो जनसमाज को प्रकाश देगा, सत्प्रेरणा देगा । इस.सामूहिक लाभ के साथ उसका निज का लाभ भी इसी में है कि वह स्थिर होकर एक जगह न रहे । एक जगह रहने से परिचय और सम्पर्क गाढ़ा होता. है और उससे राग-द्वेष की वृत्तियां फलती-फूलती हैं । विचरणशील साधु अनिष्ट से सहज ही बच सकता है । साधु जहां भी जाएगा, प्रकाश की किरणें