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[५४] विकार विजय
अज्ञानी और ज्ञानी के जीवन में बड़ा अन्तर होता है । बहुत बार दोनों की बाह्य क्रिया एक-सी दिखाई देती है, फिर भी उसके परिणाम में बहुत अधिक भित्रता होती है । ज्ञानी का जीवन प्रकाश लेकर चलता है जबकि अज्ञानी अन्धकार में ही भटकता है । ज्ञानी का लक्ष्य स्थिर होता है, अज्ञानी के जीवन में कोई लक्ष्य प्रथम तो होता ही नहीं, अगर हुआ भी तो विचारपूर्ण नहीं होता । उसका ध्येय ऐहिक सुख प्राप्त करने तक ही सीमित होता है । फल यह होता है कि अज्ञानी जीव जो भी साधना करता है वह ऊपरी होती है, अन्तरंग को स्पर्श नहीं करती । उससे भवभ्रमण और बन्धन की वृद्धि होती है, आत्मा के बन्धन कटते नहीं।
ज्ञानी का अन्तस्तल एक दिव्य आलोक से जगमगाता रहता है । वह सांसारिक कृत्य करता है, गृहस्थी के दायित्व को भी निभाता है और व्यवहार-व्यापार भी करता है, फिर भी अन्तर में ज्ञानालोक होने से उनमें वह लिप्त नहीं होता । उसकी क्रियाएं अनासक्त भाव से सहज रूप में ही होती रहती हैं । इस तथ्य को समझने के लिए एक उदाहरण लीजिए । एक अध्यात्मनिष्ठ सन्त भी भोजन करता है
और एक रसलोलुप भी । बाहर से दोनों की क्रिया में अन्तर दिखाई नहीं देता । मगर दोनों की आन्तरिक वृत्ति में कितना अन्तर होता है ? एक में लोलुपता है, जिह्वासुख भोगने की वृत्ति है और इस कारण, भोजन करते हुए वह चिकने कर्मों का बन्धन करता है तो दूसरे में पूर्ण अनासक्त भाव है । वह इन्द्रिय तृप्ति के लिए नहीं वरन् जीवन के उच्च ध्येय को प्राप्त करने में सहायक शरीर को टिकाये रखने की इच्छा से भोजन करता है । अतएव भोजन करते हुए भी वह कर्मबन्ध नहीं करता । यही पार्थक्य अन्यान्य क्रियाओं के विषय में भी समझ लेना चाहिए । ज्ञानी और अज्ञानी का.अन्तर दिखलाते हुए कहा गया है