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आध्यात्मिक आलोक साधु के समक्ष भोग-उपभोग की मनोज्ञ सामग्री प्रस्तुत की जाती है और उसे ग्रहण करने का अनुरोध किया जाता है तो यह भी अनुकूल परीषह है । अगर साधु उस सामग्री के प्रलोभन में आकर संयम की सीमा का उल्लंघन करता है तो वह गिर जाता है और यदि उसके मन में प्रलोभन उत्पन्न नहीं होता और समभाव बना रहता है तो वह परीषह विजेता कहलाता है ।
इस प्रकार संयम से च्युत करने वाले जितने भी प्रलोभन हैं, सब अनुकूल परीषह कहलाते हैं । प्रतिकूल परीषह इससे उलटे होते हैं । भूख-प्यास की बाधा होने पर भी भोजन-पानी न मिलना, सर्दी-गर्मी का कष्ट होना, अपमान और तिरस्कार की परिस्थिति उत्पन्न हो जाना आदि जो अवांछनीय कष्ट आ पड़ता है, वह प्रतिकूल परीषह है।
___ अज्ञानी लोग अपनी प्रशंसा करने वाले को, अभिनन्दन-पत्र प्रदान करने वाले को और दूसरे प्रलोभन देने वाले को अपना मित्र समझते हैं और अपमान करने वाले को तथा किसी दूसरे तरीके से कष्ट और संताप पहुँचाने वाले को शत्रु समझते हैं। वह एक पर राग और दूसरे पर द्वेष करके कर्म का बन्ध करता है। किन्तु ज्ञानी पुरुष दोनों पर समभाव रखता है। न किसी पर रोष, न किसी पर तोष । उसका . समभाव अखंड रहता है।
प्रश्न किया जा सकता है कि यदि साधु के वास्तविक गुणों की प्रशंसा करना उसके लिए अनुकूल परोपह है तो क्या प्रशंसा करना पाप है ? क्या साधु के गुणों की प्रशंसा नहीं करनी चाहिए ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि पाप और पुण्य का सम्बन्ध कर्ता की भावना पर निर्भर है । साधु के उत्तम संयम और उच्चकोटि के वैराग्यभाव को देखकर भव्य जीव के हृदय में प्रमोद भावना उत्पन्न होती है । प्रमोदभाव से प्रेरित होकर वह उन गुणों की स्तुति करता है। स्तुति सुनकर मुनि अभिमान करने लगे और अपने समभाव से गिर जाए, ऐसी कल्पना भी उसके हृदय को स्पर्श नहीं करती । वह उन गुणों की प्राप्ति की ही प्रकारान्तर से कामना करता है और अपने धर्म को पालन करता है। ऐसी स्थिति में प्रशंसा करना हेय नहीं है। हां, मुनि का कर्तव्य है कि वह अपने समभाव को स्थिर रखे और प्रशंसा सुनकर भी गर्व का अनुभव न करे, वरन प्रशंसा के अवसर पर अपनी त्रुटियों का ही विचार करे। ऐसा करके मुनि अपने धर्म का पालन करता है । दोनों को अपने अपने धर्म का पालन करना चाहिए।
प्रतिकूल परीषह को सहन करना वीरता है तो अनुकूल परीषह को सहन करना महावीरता है । मनुष्य कष्ट झेल सकता है मगर प्रलोभन को जीतना कठिन