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आध्यात्मिक आलोक डराने-धमकाने वाला यदि हाथ में वांस आ जाय तो उसी को लेकर दौड़ पड़ेगा । कमजोरी के कारण लकड़ी रखने का प्रयोजन दूसरा था किन्तु क्रोधादेश में उसका प्रयोजन दूसरा ही होता है-प्रहार करना । श्रावक परिग्रह का पूरी तरह त्याग नहीं कर पाता, यह उसकी दुर्बलता है । वह इसे अपनी दुर्वलता ही समझता है।
कभी-कभी ऐसा अवसर भी आ जाता है कि भ्रम, विपर्यास या मानसिक दुर्बलता के कारण मनुष्य व्रत की सीमा से बाहर चला जाता है, वह समझता है कि मेरा द्रत-भंग नहीं हो रहा है । मगर वास्तव में व्रत भंग होता है । इस प्रकार का व्रतभंग अतिचार की कोटि में गिना जाता है । और जब व्रत से निरपेक्ष हो कर जानबूझ कर गत को खण्डित किया जाता है तो अनाचार कहलाता है । परिग्रह का परिमाण करने वाला श्रावक यदि धन, सम्पत्ति, भूमि आदि परिमाण से अधिक रख लेता है तो अनाचार समझना चाहिए और दैसी स्थिति में उसका व्रत पूरी तरह सण्डित हो जाता है । पचास एकड़ भूमि का परिमाण करने वाला चदि सात एकड़ रख लेता है तो यह जानबूझ कर व्रत की मर्यादा को भंग करना है और यह अनाचार है।
कोई व्यक्ति एक मकान के बीच में दीवाल खड़ी कर दे तो एक के बदले दो मज्ञान कहलाएंगे । एक मकान के चार भाग कर दिये जाएं तो भी वह वस्तुतः एक ही कहा जाता है, जब तक उसमें विशेष परिवर्तन न हो । इस प्रकार मकान का परिमाण करने में दृष्टि या लक्ष्य को प्रधानता होती है।
जमीन जायदाद आदि के किये हुए परिमाण का व्रत सापेक्ष अतिक्रमण करना प्रथम अतिचार है। किसी ने व्रत ग्रहण करते समय एक या दो मकानों की मर्यादा को। बाद में ऋण के रुपयों के बदले उसे एक और मकान प्राप्त हो गया। अगर वह उसे रख लेता है तो यह अतिचार कहलाएगा। इसी प्रकार एक खेत देव कर या मकान बेचकर दूसरा खेत या मकान खरीदना भी अतिचार है यदि उसके पीछे अतिरिक्त अर्थलाम का दृष्टिकोण हो । तात्पर्य यह है कि इस व्रत के परिमाण में दृष्टिकोण मुख्य रहता है और व्रतधारी को सदैव इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि उसने तृष्णा, लोभ एवं असन्तोष पर अंकुश लगाने के लिए व्रत ग्रहण किया है, अतएव ये दोष किसी बहाने से मन में प्रवेश न कर जाएं और ममत्व बढ़ने नहीं पाए।
व्रती को नौ प्रकार के परिग्रह के अतिक्रमण से बचना चाहिए -
७) जमीन (२ जायदाद ) स्वर्ण ) चांदी (1) दास-दासी आदि (६) घोड़ा आदि (७) धन (८) धान्य और () कुप्य-फर्नीचर, बर्तन आदि ।