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. [५२] परिग्रह मर्यादा
"आचारः प्रथमो धर्म" अर्थात् धर्म के अनेक क्रियात्मक रूप हैं किन्तु आचार सदाचार सब धर्मों में प्रथम है । इस उक्ति के अनुसार जब भगवान महावीर की वाणी का संकलन किया गया तो भगवान के द्वारा प्ररूपित आचार धर्म का प्रथम अंग-आचारांग में संकलित हुआ । इस प्रकार प्रथम धर्म का प्रथम अंग में निरूपण किया जाना शास्त्रकारों की दूरदर्शिता और सूक्ष्म प्रज्ञा का परिचायक है।
आचारांग सूत्र में मुनिधर्म का हृदय ग्राही निरूपण है । उसमें भी प्रथम अध्ययन में पापत्याग की प्ररूपणा की गई और हिंसा से होने वाले कुपरिणाम क्तलाए गए हैं।
मुनियों के समान प्रत्येक साधक को पूर्ण रूप से निष्पाप और त्यागमय जीवन बनाने के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए । त्यागमय जीवन यापन करने के लिए व्रतों को प्रतिज्ञा के रूप में अंगीकार करना आवश्यक होता है।
___ कई लोग समझते हैं कि हम यों ही व्रत का पालन कर लेंगे, प्रतिज्ञा के बन्धन में बंधने की क्या आवश्यकता है ? किन्तु इस प्रकार का विचार हृदय की दुर्बलता से प्रसूत होता है । जिसे व्रत का पालन करना ही है उसे प्रतिज्ञा से घबराने की क्या आवश्यकता है ? प्रतिज्ञा के बन्धन में न बंधने के विचार की पृष्ठभूमि में क्या उस व्रत की मर्यादा से बाहर चले जाने की दुर्बल वृत्ति नहीं है ? यदि संकल्प में कमी न हो तो व्रत के बन्धन से बचने की इच्छा ही न हो । स्मरण रखना चाहिए कि क्न्धन वही कष्टकर होता है जो अनिच्छा से मनुष्य पर लादा जाता है । स्वेच्छापूर्वक अंगीकार किया हुआ, व्रत का बन्धन साहस और शक्ति प्रदान करता है। प्रतिकूल परिस्थिति में इसके द्वारा अपनी मर्यादा से विचलित न होने की प्रेरणा प्राप्त होती है। व्रत के बन्धन से ही गांधीजी विलायत में मध, मांस और