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आध्यात्मिक आलोक दृष्टि से सारी सामग्रियों के द्वारा रूपकोषा ने स्थूलभद्र को ललचाने का भरपूर प्रयास किया। मगर स्थूलभद्र जरा भी विचलित नहीं हुए। वे तो नित्य शाश्वत, बुद्ध, निष्कलंक एवं शुद्ध भावों में रमण कर रहे थे।
__ योगी और भोगी कभी एक नहीं हो सकते और न शुद्ध एवं अशुद्ध कभी एक रूप हो सकता है। इसी तरह की दशा रूपकोषा और स्थूलभद्र की हो रही थी। रूपकोषा ने सोचा कि गुरु के पास कष्ट पाने या संयम के त्रास से ये यहां आए हुए हैं । बल से न झुकने पर आर्तभाव आदि से अवश्य पिघल जायेंगे, ऐसा सोचकर वह करुण क्रन्दन करती हुई स्थूलभद्र के चरणों में गिर पड़ी और बोली कि यदि आप शरण न देंगे तो मुझ अभागिनी का गुजारा कैसे होगा। जिसके लिये मैंने अपना लोक और परलोक दोनों बिगाड़ा, वह भी अगर मेरी नहीं सुनेगे तो मैं कहीं की नहींरहूंगी ?
रूपकोषा की आकुलता देखकर स्थूलभद्र अकम्पित भाव से उसे उपदेश देने लगे, जिसका उसके दिल पर अच्छा प्रभाव पड़ा।
(प्रथम भाग समाप्तम् )