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[४९] ब्रह्मचर्य की विशुद्धि
आचारांग सूत्र में जोन की रक्षा का विचार करते हए निरूपण किया गया है कि किन-किन प्रयोजनों एवं कारणों से प्रेरित हो कर अज्ञानोजन हिंसा करते हैं और कैसे उससे बचना चाहिए ? हिंसा से बचने और अहिंसा का पालन करने के लिए सर्वप्रथम जीव-अजीव को पहचानने को आवश्यकता है। जोव के स्वरूप ने जाने विना हिंसा से क्चना संभव नहीं है । शास्त्र में कहा है कि
जो जो वि न याइ अजीव वि न यानेइ
जोवाजीवे अपाती कह सौ नाहीइ संजमं। बहुत से लोग जोव को अजीव नानकर निःसंकोच हिंसा में प्रवृत्त होते देखे जाते हैं । चलते-फिरते और व्यक्त चेतना वाले जीवों को ते साधारण लौकिक जन भी जीव समझते हैं किन्तु ऐसे भो जोव होते हैं जिनको चेतना व्यक्त नहीं होतो या जिनको चेतना के कार्य हमारे प्रत्यन नहीं होते । वे स्थावर जोव कहताते हैं । यद्यपि ज्ञानी के लिए उनको चेतना भी व्यक्त है, पर चमड़े को आंख वाले के लिए वह व्यक्त नहीं होती । फिर भी यदि गहराई से विचार किया जाय ते उसमें रहो हुई चेतना को समझ लेना कठिन नहीं है । अनुमान और आगम प्रमाणों से ते उसे भी समझने में कोई कठिनाई नहीं होगी।
सब का स्वानुभव इस सत्व का साक्षी है कि जगत के छोटे-बड़े सभी जीवों को अपनी-अपनी आयु प्रिय है, जीवन प्रिय है, प्राण प्रिय है । मृत्यु सभी को अप्रिय है । सभी जीव दुःख से उद्विग्न होते हैं और सुख से प्रसन्न होते हैं ।
एक राजनीतिज्ञ और विधान शास्त्री धन, भूमि और वस्त्र आदि के हरण को अपराध मानते हैं तो क्या प्राणहरण अपराध नहीं है । वास्तव में प्राणहरण सबसे बड़ा अपराध है, क्योंकि जीदों को प्राण सब से अधिक प्रिय है। बड़े-से-बड़े साम्राज्य