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आध्यात्मिक आलोक मन की ममता हटाने से ही स्थूलभद्र वेश्या की दुत्ति पर विजयी हो सके और सिंह की गुफा पर रहने वाले साधक ने तन की ममता को मार कर सिंह से विजय प्राप्त की।
मुनि-दीक्षा अंगीकार करने वाला साधक जब अपने को गुरु के श्रीचरणों में . अर्पित करता है तब द्रव्य परिग्रह (धन) का त्याग तो कर ही देता है , भाव-परिग्रह के त्याग की परीक्षा भी समय-समय पर होती रहती है । एक मुनि नाग की बांवी पर ध्यान में लीन हो गए। मुनि ध्यानावस्था में एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं जाता, वाणी का उच्चारण नहीं करता और चित्त की चंचलता को भी त्याग देता है । इस प्रकार तीनों गुप्तियों से गुप्त मुनि को देख कर नाग का रोष सोमातोत हो गया । उसने विचार किया कौन है यह अमागा जो अपने प्राण देने के लिए मेरी बांबी पर आया है ! मौत किसे पकड़ कर आज यहां ले आई है ? ऐसा सोचकर उसने फुकार को, मगर मुनि ज्यों के त्यों स्थिर बने रहे । नाग और निकट आया । इस बार उसने अपना मुँह मारा, फिर भी मुनि अडोल अकम्प ! न उनका शरीर चलायमान हुआ और न मन विचलित हुआ । सर्प विस्मय में पड़ गया । फिर सर-सर करके वह मुनि के गले में लिपट गया । विषविहीन-सा हो गया । जैसे गारुड़ी लोग सर्प को वश में कर लेते हैं, वैसी ही स्थिति इस सर्प की हो गई।
जैसे समुद्र में विस्फोट होने से बम का विष विलीन हो जाता है । वैसे सर्प का विष मुनिराज के समता-सागर में विलीन हो गया । वह एक अनोखी स्थिति का अनुभव करने लगा।
मुनि की मनोदशा का विचार कीजिए । यह त निश्चित है कि उनके मन में नाग के प्रति तनिक भी द्वेष उत्पन्न नहीं हुआ । ऐसा होता तो नाग को हिंसक-वृत्ति को ईंधन मिल जाती और उसे डंक मार कर विषवमन करने का अवसर मिल जाता।
ते क्या मुनि के मन में भय का संचार हुआ ? किन्तु भव भी हृदय की दुर्बलता है और हिंसा का ही एक रूप है। भय उत्पन्न होने पर मनुष्य निश्चल, मौन
और शान्त नहीं रह सकता । अतएव यह मानना स्वाभाविक है कि उनके मन में भय को भावना का भी अविर्भाव नहीं हुआ। और फिर मुनि के लिए भय का कारण हो क्या था ? जो आत्मा को अजर, अमर, अदिनाशी, सचित्त-आनन्दमय मानता है और समझता है कि संसार का तीक्ष्ण से तीक्ष्ण शस्त्र भी आत्मा के एक प्रदेश को भी उससे अलग नहीं कर सकता, उसे भय क्यों उत्पन्न होगा ? अमूर्तिक आत्मा पर शस्त्र की पहुँच नहीं हो सकती । कहा भी है