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आध्यात्मिक आलोक
के आय-व्यय सम्बन्धी बातों की सबको चिन्ता रहती है, किन्तु जिस पुण्य के प्रभाव से धन-वैभव टिकता है, उसकी किसको कितनी चिन्ता रहती है ? हम पुण्य का जो खजाना लेकर आए हैं तथा जिसका उपभोग प्रति पल कर रहे हैं, यदि उसमें नवीन आय सम्मिलित न की गई -नया पुण्य नहीं उपार्जित किया गया तो खजाना समाप्त हो जाएगा। फिर आगे क्या स्थिति होगी ? किन्तु मनुष्य वर्तमान को ही सब कुछ समझ कर भविष्य को भूल जाता है। वह भूल जाता है कि उसे परलोक में जाना होगा और वहां पुण्य के अभाव में क्या कठिनाइयां उठानी पड़ेंगी।
बन्धुओ ! इस छोटे-से वर्तमान के लिए दीर्घ भविष्य को विस्मृत मत करो। जैसे पूर्व पुण्य का फल यहां भोग रहे हो, उसी प्रकार यहां भी पाप से बचो और पुण्य का उपार्जन करो जिससे आगे भी उत्तम संयोग प्राप्त कर सको और उन उत्तम संयोगों का सदुपयोग करके आत्मा का कल्याण साधन कर सको ।
जो पुण्य को बढ़ाएँगे वे कभी किसी से भय नहीं खाएँगे । वे इहलोक और परलोक में निर्भय रहेंगे । कुछ करने का फल ही आज हमें इस रूप में प्राप्त है । अन्यथा यों संसार में कौन किसे पूछता है ?
बीज अच्छे खेत में बोया जाता है तो पौधे के रूप में लहलहाने लगता है। वही अगर नाली में डाल दिया जाय तो सड़ जाएगा पर पौधे के रूप में विकसित नहीं हो सकेगा । इसी प्रकार धन रूपी बीज अगर अच्छे खेत में डाला जाय, सुकृत्य में लगाया जाय, तो वह पुण्य रूपी पौधे के रूप में विकसित होता है । कुकर्म ऊसर या खारी भूमि है, और सुकर्म सुन्दर खेत है। हमें बीज वहां डालना है जहां वह फूले, फले और विकसित हो । जो ऐसा करता है वही प्रथम श्रेणी का मानव है, उदय में उदय करने वाला है ।
जीवन, धन और वैभव जाने वाली वस्तुएं हैं किन्तु इन जाने वाली वस्तुओं से कुछ लाभ उठा लिया जाय, अपने भविष्य को कल्याणमय बना लिया जाय, इसी में मनुष्य की बुद्धिमत्ता है, विवेकशीलता है । कहा भी है
गढ़ रहे न गढ़पति रहे रहे न सकल जहान । दोय रहे नृप मान कहे, नेकी बदी निदान ||
सुकृत करने वाला मनुष्य अपना नाम संसार में चिरस्थायी बना जाता है । काल की चक्की उसके यश को खण्डित नहीं कर सकती । युगं पर युग व्यतीत हो जाते हैं परन्तु लोगों की जीभ पर उसका सुयशगान बना रहता है ।
भारत में आज जनता का राज्य है । योग्य व्यक्ति अपनी बुद्धि तथा बल का प्रयोग करके महत्वपूर्ण कार्य कर सकते हैं । प्रत्येक मानव पर आज महान्