________________
272
आध्यात्मिक आलोक
चाहिए । अगर आज आप इस पर ध्यान नहीं देंगे तो कल जाकर घोर पश्चात्ताप करने का समय आ सकता है ।
आप स्थूलभद्र मुनि का आख्यान सुन रहे हैं। एक स्थूलभद्र ने रूपकोषा के जीवन को सुधार दिया । क्या उसके सुधार से अनेकों का सुधार नहीं हुआ होगा? सुधार की परम्परा इसी प्रकार प्रारम्भ होती है ।
आत्मबली महामानव मनुष्यों पर ही नहीं, पशुओं पर भी अपना प्रभाव डालते हैं और उनको भी कल्याण पथ का पथिक बना देते हैं । भारतीय साहित्य में ऐसे उदाहरण प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं । स्थूलभद्र का एक साथी मुनि सिंह को गुफा पर चार महीने सिंह के सामने अडोल रहा, यद्यपि सिंह उसे देख कर गुरांचा, उसने उग्ररूप भी धारण किया । इधर साधक ने अपनी शान्त दृष्टि सिंह की ओर डाली और उस दृष्टि में कुछ ऐसा अदभुत प्रभाव था कि सिंह का सारा उग्र भाव शान्त हो गया। एक क्षण पहले गुरनि वाला सिंह मुनि के चरण चूमने लगा । एक आचार्य ने कहा है -
'अहिंसा - प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैर-त्यागः ।
जिसके अन्तःकरण में अहिंसा की प्रबल भावना होती है, जिसका जीवन अहिंसामय बन जाता है, उसका प्रभाव दूसरों पर पड़े बिना रह नहीं सकता । अहिंसा के आगे वैर-विरोध की समस्त शक्तियां परास्त हो जाती हैं । अहिंसक के आसपास का समग्र वातावरण शान्तिमय, करुणामय, सात्विकता से परिपूर्ण और पवित्र बन जाता है । मुनि अहिंसा के प्रतीक थे और उनके अन्तःकरण में प्रेम एवं वात्सल्य का भाव इतना उग्र और गहरा था कि सिंह की सारी हिंसा भावना उसके सामने गल कर पानी-पानी हो गई ।
एक मनुष्य अगर अपने जीवन को सुधार लेता है तो दूसरों पर उसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता । आत्म-बल में ऐसी अपूर्व और अनिर्वचनीय शक्ति है ।