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अममत्व
इस विराद जीवसृष्टि की ओर दृष्टि डालते हैं तो असंख्य प्रकार के जीव दृष्टिगोचर होते हैं। इस प्रकार भेद भी किसी एक आधार पर नहीं है । शरीर - संस्थान की दृष्टि से देखें तो भिन्नता है, इन्द्रियों की संख्या की दृष्टि से विचार किया जाय तो भी विषमता प्रतीत होती है। बौद्धिक स्तर भी सबका एक-सा नहीं है ।
इसके विपरीत जब आगमों की गहराई में उतरते हैं तो कुछ दूसरा ही तत्व विदित होता है । आगम आत्मा की एकता का प्रतिपादन करता है- 'एगे आया' यह शास्त्र का विधान है, जिसका आशय यह है कि चैतन्य सामान्य की दृष्टि से विभिन्न आत्माओं में एकरूपता है । सभी आत्माएं अपने मूल स्वरूप से एक-सी हैं, उनमें कोई अन्तर नहीं है ।
इस प्रकार प्रत्यक्ष एक प्रकार का विधान करता है और आप्त प्रणीत आगम दूसरे प्रकार का । इस विरोध का कोई परिहार है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जिनागम का कोई भी विधान प्रमाण से बाधित नहीं हो सकता और न परस्पर विरोधी ही हो सकता है । प्रत्येक आत्मा मौलिक रूप में एक समान होते हुए भी उसमें जो विविधता दृष्टिगोचर होती है वह बास्य निमित्त से है। जल मूल में एक-सा होता है, फिर भी अनेक प्रकार की पृथ्वी आदि के संसर्ग से खारा-मीठा, हल्का भारी, शीत-उष्ण आदि रूप धारण कर लेता है । यही आत्मा की स्थिति है । आत्मा कर्मों की / विचित्रता के कारण विविध रूपों में हमें प्रतीत होता है । कर्म यदि सघन और विशिष्ट शक्तिशाली होते हैं तो वे आत्मिक शक्तियों को अधिक आच्छादित करते हैं और यदि हल्के होते हैं तो उतनी सघनता से आच्छादित नहीं करते ।
चन्द्रमा के समान निर्मल और सूर्य के समान तेजोमय आत्मा कर्म के आवरण से मलीन हो रहा है। उसकी अनन्त अनन्त शक्तियां कुंठित हो रही हैं ।