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आव्यात्मिक आलोक दूध में परिवर्तन आया और वह दही के रूप में जमने लगी । उसने देशविरति रूप श्राविका धर्म को अंगीकार कर लिया।
सद्भावना और हित भावना से उच्चरित सुवक्ता की वाणी का यदि प्रभाव नहीं पड़ता तो समझना चाहिए कि श्रोता ही अपात्र है। वह दूध ही खराब है जो जामन डालने पर भी नहीं जमता ।
मगर रूपकोषा वासना के विष में पगी हुई भी अपात्र नहीं थी । बाह्य दृष्टि में जो अधम और पतित से पतित प्रतीत होता है, उसके भीतर भी दिव्यता
और भव्यता समाहित हो सकती है। यही कारण है कि ज्ञानी जन उसके प्रति भी घृणा के बदले करुणा का ही भाव रखते हैं और उसकी दिव्यता को जागृत करने का प्रयत्न करते हैं। ऐसा वे न करते तो शास्त्रों में घोरातिघोर कुकर्म करने वाले अर्जुन मालाकार और प्रदेशी राजा के जैसे जीवन चरित्र पढ़ने को हमें कैसे मिलते ?
तो कलंदर की तरह मन-मर्कट को इच्छानुसार नचानेवाली रूपकोषा मुनि को वैराग्य रस-परिपूरित वचनावली सुनकर वीतरागता की उपासिका बन गई । मुनिराज स्थूलभद्र उसके गुरु बन गये । 'गु' शब्द अन्धकार का और 'रु' शब्द उसके विनाश का वाचक है । अभिप्राय यह है कि मनुष्य के अन्तःकरण में व्याप्त सघन अन्धकार को जो विनष्ट कर देता है, जो विवेक का आलोक फैला देता है वह 'गुरु' कहलाता है । जीवन-रथ को कुमार्ग से बचाकर सन्मार्ग पर चलाने के लिए और अमीष्ट लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए योग्य गुरु को अनिवार्य आवश्यकता है । रूपकोषा को सुयोग्य गुरु मिल गए और उसका जीवन-रथ विषय-वासना के कीचड़मय एवं ऊबड़-खाबड़ मार्ग से निकल कर साधना के राजमार्ग पर अग्रसर हो चला । उसने वासना के विष को वमन कर दिया और परम-ज्योतिस्वरूप परमात्मा को अपने चिन्तन का लक्ष्य बनाया।
साधना. के साधारणतया दो रूप देखे जाते हैं - ७) सकाम साधना और (२) निष्काम साधना | सकाम साधना लौकिक लाभ के उद्देश्य से की जाती है, उसमें आत्मकल्याण का विचार नहीं होता, अतएव सच्चे अर्थ में वह साधना नहीं कहलाती। सकाम साधना के विकत अतिविकत रूप आज हमारे सामने हैं । लोगों ने अपनी-अपनी कामना के अनुकूल साधना की विविध विधियों का आविष्कार कर लिया है और उसी के अनुसार अनेकानेक भित्र-भिन्न देव-देवियों की सष्टि कर डाली है। कई देवों और देवियों को तो रक्त-पिपासु के रूप में कल्पित कर लिया गया है । मगर क्या देवी देवता रक्त से प्रसन्न होंगे ? रक्त की बूंद कपड़े पर पड़ जाती है तो मनुष्य उसे तत्काल धोना चाहता है और जब तक नहीं घो डालता तब तक मन में