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1 आध्यात्मिक आलोक
253 कि धर्म किसी भी स्थिति में हानिकारक नहीं होता । अतएव भय को त्यागकर, धर्म 2 पर श्रद्धा रख कर प्रामाणिकता को अपनाओ। ऐसा करने से आत्मा कलुषित होने
से बचेगी और प्रामाणिकता का सिक्का जम जाने पर अप्रामाणिक व्यापारियों की अपेक्षा व्यापार में भी अधिक लाभ प्राप्त किया जा सकेगा । जिन्हें उत्तम धर्म श्रवण करने का सुअवसर मिला है, उन्हें दूसरों की देखादेखी पाप के पथ पर नहीं चलना चाहिए। उनके हृदय में दुर्बलता, कुशंका और कल्पित भीति (भय) नहीं होनी चाहिए। ऐसा सच्या धर्मात्मा अपने उदाहरण से सैकड़ों अप्रामाणिकों को प्रामाणिक बना सकता है और धर्म की प्रतिष्ठा में भी चार चांद लगा सकता है।
अचौर्य व्रत को अंगीकार करने वाले गृहस्थ को न तो मिलावट का धन्धा करना चाहिए और न असली के बदले नकली वस्तु देनी चाहिए । मिलावट करके देना या नकली चीज देना धोखा है । यह अधर्म है । धर्म का प्राण है सरलता और निर्मलता।
जो इन पांच दोषों से बचेगा वह प्रामाणिक कहलाएगा और कर्मबन्ध से हल्का होकर अपने भविष्य को मंगलमय बनायेगा । इन अतिचारों से बचे रहने से व्रतों की सुन्दर भूमिका तैयार हो जाती है।
धर्म शिक्षा को जीवन में रमाने के लिए काम-वासना को उपशान्त एवं नियन्त्रित करना, मोह की प्रबलता को दबाना और अमर्यादित लोभ का निग्रह करना आवश्यक है । ऐसा नहीं किया गया तो धर्म के संस्कार जीवन में बद्धमूल नहीं हो सकेंगे । जब आत्मा में सम्यगज्ञान की सहस-सहस्र किरणें फैलती हैं और उस आलोक से जीवन परिपूर्ण हो जाता है, तब काम, क्रोध और लोभ का सघन अन्धकार टिक ही नहीं सकता।
उदाहरण रूप में देखिये
महामुनि स्थूलभद्र की संगति से पाटलिपुत्र की नगर-नायिका अपने जीवन में आमूलचूल परिवर्तन कर लेती है । रूपकोषा के द्वार पर पण्डित की पण्डिताई, कुलीन की कुलीनता और साधु की साधना हवा हो जाती थी । उसके विलास-भवन में वासना की धधकती धूनि में संयम, शील, और सदाचार भस्म हो जाते थे । मगर यह नरवीर अद्भुत योगी था जिसने चार मास तक उसके घर में ही डेरा डाला । काजल की कोठरी में से वह अछूता निकला । यही नहीं, उसने काजल को अपने सानिध्य से स्वर्ण रूप में परिवर्तित कर दिया । जामन डालने से दूध दही रूप में बदल जाता है । मुनि ने वाणी का ऐसा जामन डाला कि कोषा की भावना रूपी