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आध्यात्मिक आलोक
_243 चुकने पर पाप है । किन्तु पाप और आस्रव में सर्वथा भेद भी नहीं समझना चाहिए । आस्रव के दो रूप हैं शुभ और अशुभ । अशुभ आस्रव पाप रूप है । यहां यह बतलाने की आवश्यकता नहीं कि हिंसा आदि अशुभ व्यवहार कर्मासव के कारण होने से ही पाप कहलाते हैं ।
कोई व्यक्ति व्रतादि करके तप तो करे किन्तु हिंसा जारी रखे तो उसको पाप आता रहेगा, क्योंकि उसने आस्रव का द्वार खुला रखा है । बहुत बार तो ऐसा होता है कि नवीन बन्ध अधिक और उसकी निर्जरा कम होती है। निर्जरा का परिमाण इतना कम होता है कि आने वाला पाप बढ़ जाता है। किसी की कमाई प्रतिदिन एक रुपया हो और खर्च आठ रुपया, तो ऐसा व्यक्ति लाभ में नहीं रह सकता, घाटे में ही रहेगा । वह अपना भार बढ़ा भले ले, पर घटा नहीं सकता। अतएव यह आवश्यक है कि तप, उपवास आदि व्रतों के साथ ही साथ हिंसादि आसवों का भी त्याग किया जाय। नूतन पाप के आगमन के द्वार बन्द कर दिये जाएं।
श्रावक आनन्द की व्रतचर्या से इस विषय पर स्पष्ट प्रकाश पड़ता है। उसने व्रतों को अंगीकार करके पाप का मार्ग छोटा कर दिया था । तीसरे व्रत के पांच दुषणों में से दो की चर्चा पहले की जा चुकी है, जो इस प्रकार हैं -
चोरी की वस्तु खरीदना, और (२) चोर को सहयोग देना ।
चोर द्वारा चुराई हुई वस्तु लेना अथवा खरीदना प्रथम अतिचार या दोष है। यह प्रत्यक्ष चोरी न होने पर भी अप्रत्यक्ष चोरी है । ऐसा पाप करने से आत्मा हल्की नहीं रहती। यह वस्तु चोरी की है अथवा नहीं, यह निर्णय करना कठिन नहीं है, क्योंकि चोरी की वस्तु प्रायः कम मूल्य में मिलती है । जो चुराई हुई वस्तुओं को खरीदते हैं, उनकी लोक में भी विश्वसनीय स्थिति नहीं रहती; शासन के कानून के अनुसार भी वे दण्डनीय होते हैं । इस प्रकार लौकिक हानि के साथ उनका आत्मिक पतन भी होता है, क्योंकि उनमें आसक्ति एवं कषाय की बहुलता होती है । इसी प्रकार लूट या डकैती का माल भी श्रावक को नहीं लेना चाहिए, क्योंकि अनीति से आया होने के कारण ऐसा द्रव्य शान्तिदायक एवं फलीभूत भी नहीं होता ।
दूसरा दोष है चोर को चोरी करने के लिए प्रेरित करना, परामर्श देना, उपाय बतलाना आदि । मनुष्य यदि शास्त्र के बतलाये मार्ग पर चले तो उसे किसी प्रकार का खतरा नहीं हो सकता । जो चोरी सम्बन्धी सब दोषों से दूर रहता है उसे भय का पात्र नहीं बनना पड़ता । अतः चोर को किसी भी रूप में सहयोग नहीं देना चाहिए।