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- आध्यात्मिक आलोक
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दूरी करोति कुमति, विमली करोति, चेतश्चिरंतनमघं चुलकी करोति । भूतेषु किंच करुणां बहुली करोति, संगः सतां किमु न मंगलमातनोति ।। .
आनन्द श्रावक ने तत्व को पहचान लिया। उसने जीवन की स्थिति अडोल बनाली और संसार में रहते हुए भी वह संसार से सर्वथा अलग हो गया। ज्ञान प्राप्ति के लिये ज्ञानवान की संगति आवश्यक है- इसी प्रकार अज्ञानी और मिथ्यादर्शनी का संग जो दूषण रूप है त्याज्य है। इसके लिये शास्त्रीय शब्द 'पर-पाखण्ड' आता है। शंका होती है कि 'पाखंड' तो अपना हो या पराया, है तो बुरा ही फिर पर-पाखंड-प्रशंसा से पर-पाखंड प्रशंसा की निन्दा और निषेध क्यों ? क्या अपने पाखण्ड की निन्दा नहीं करनी है? नहीं, वस्तुतः 'पाखण्ड' का सही अर्थ व्रत-नियम है। आत्म-भाव की ओर ले जाने वाला व्रत-नियम स्व पाखण्ड है, इसके विपरीत परभाव-धनदारादि वैभव या मिथ्यात्व की ओर ले जाने वाला पर-पाखंड होने से वर्जनीय है। अथवा सम्यक् दृष्टि 'स्व' है और सम्यक् दृष्टि विहीनता 'पर' है। पर-पाखंड प्रशंसा अर्थात् अज्ञान से परिपूर्ण साधना की प्रशंसा करना अनुचित है।
पर-पाखंड प्रशंसा का फल है संसार और उस संसार का त्याग ही मुक्ति है। राग-भाव तथा अज्ञान भाव से युक्त व्रत साधना जीवन को गड़बड़ा देती है। पर पाषंड प्रशंसा का जन साधारण में अनुकरण होता है और इसी पर पाखंड की प्रशंसा के कारण साधना के शुद्ध मार्ग में विकृति आने लगती है । महापुरुष तात्कालिक विकृति को अपने सामर्थ्य से दूर करते हैं। भगवान पार्श्वनाथ ने भी अज्ञान करणी का निकंदन किया। पार्श्वनाथ का सिद्धान्त था कि अज्ञानमय को भी प्रेम से सन्मार्ग बताया जाये। धर्म का प्रचार अपशब्द या डंडे के जोर पर करने से सही रूप में प्रचार नहीं होता। भय का रास्ता गलत है । धर्म प्रसार प्रेम द्वारा किया गया ही स्थायी व हितकर हो सकता है। भगवान पार्श्वनाथ ने साधना से राग-द्वेष दोनों को दूर कर लिया था। उनको तप करते हुए ध्यानस्थ देखकर कमठ ने रोष किया और प्रलय की सी स्थिति निर्मित कर दी । पार्श्वनाथ की गर्दन तक जल ही जल हो गया, फिर भी उनके मन में रोष नहीं आया। वे अडोल रहे और अपने ध्यान की धुन में मग्न रहे। वे वीतराग हो चुके थे। आत्म स्वरूप को पहचानने वाले के मन से मलिन विचार वैसे ही दूर हो जाते हैं, जैसे सूर्योदय से अन्धकार ।
विचार की भूमिका पर ही आचार के सुन्दर महल का निर्माण होता है। विचार की नींव कच्ची होने पर आचार के भव्य प्रासाद को धराशायी होते देर नहीं लगती। धर्मवीर, दानवीर और त्यागवीर का परीक्षा के समय पर ही सही पता चलता