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श्रद्धा के दोष भगवान महावीर ने श्रद्धामूलक धर्म की शिक्षा दी है। जहाँ सम्यग्दर्शन और सुश्रद्धा है, वहाँ चारित्र धर्म को चाहे जितना ऊंचा उठाया जा सकता है। चाहे साधु-धर्म हो या गृहस्थ-धर्म, सम्यग्दर्शन की दृढ़ भूमिका, दोनों के लिये अत्यावश्यक है। भगवान महावीर ने आनन्द को सम्बोधित करके सम्यग्दर्शन के पांच दूषण बतलाए। उनमें 'परपाषंड-संस्तव' वह पाँचवा दूषण है।
दूषणों का त्याग सबके लिये आवश्यक है। आनन्द ही क्या संसार के समस्त साधक और श्रावक इस सीख से लाभ उठा सकते हैं। जो गृहस्थ के लिये त्याज्य है, वह श्रमण के लिये तो त्याज्य होगा ही। क्योंकि गृहस्थ देश विरति है, अतएव उसके सामने पाप त्याग की सीमा है, किन्तु श्रमण सर्वविरति है, अतः वह सभी पापों एवं दुषणों का त्यागी है।
शंका, कांक्षा और विचिकित्सा ये तीनों दोष त्याज्य हैं। इसका कारण यह है कि जिस परम्परा या दृष्टि से साधना की जाये, यदि उसमें विश्वास नहीं हो तो कभी न कभी उसके साधक उस साधना से डिगमिगा जायेगे। ऐसे ही परपाषंड-प्रशंसा से मिथ्यामार्ग को प्रोत्साहन मिलता है। साधारण लोग भी प्रशंसा से प्रभावित होकर कुमार्गगामी बन जाते हैं, अतः सम्यग्दर्शनी को कुमार्ग अर्थात् मिथ्यात्व की भी प्रशंसा से दूर रहना चाहिये।
यहाँ वीतराग वाणी में 'स्व-पर' का मर्म कुछ भिन्न ही बताया गया है। यहाँ पर जाति, कुल-धर्म और वर्ण की दृष्टि से नहीं वरन् परमार्थ दृष्ट्या आत्म-गुणों को 'स्व' और जड़-गुण को 'पर' माना गया है। वीतराग भाव की ओर आत्मा को
अभिमुख करना यह स्व-समय है, तथा अपने सिवाय संसार की समस्त भौतिक वस्तुओं ' के अभिमुख वृत्ति को पर-समय माना गया है। पर भाव की दशा में अर्थात् राग या