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आध्यात्मिक आलोक "काजर की कोठरी में, लाख हु सयानो जाय, काजर की एक दाग, लागे . पुनि लागे है", की प्रसिद्ध उक्ति को स्थूलभद्र ने गलत सिद्ध करने की चेष्टा की। विकार के सघन मोहक वातावरण में स्वयं निर्मल रहकर, दूसरे को भी निर्मल करना, स्थूलभद्र के सामने ये दो आदर्श थे।
रूपकोषा ने स्थूलभद्र से कहा देव ! भोगभवन में विरागी का स्वांग भद्दा और बेढंगा प्रतीत होता है। आपके जैसे तरुणवय भोगी के लिये योगी का रूप पकड़ना नितान्त हास्यास्पद है। आप अपने पुराने रूप में ही हमारे मनो मन्दिर में आसन जमा और भुक्ति रूपा मुक्ति को हस्तगत करें। यह सुनकर स्थूलभद्र ने कहा, “कोषा ! ये रूप और भोग नाशवान् हैं। जिस रूप और भोग की लौ पर मनुष्य पतंगे की तरह टूटता और खाक होता है वह रूप और भोग तो स्वयं समय पाकर निस्सार हो जाता है। क्षण भर पहले जिससे आँखें हटाते अच्छा नहीं लगता था, क्षण भर बाद उधर आँखें उठाकर देखने को भी जी नहीं चाहता। फूलों की रंग-बिरंगी चिकनी कोमल पंखुड़ियां, काल पाकर झुलस कर धूल बन जाती हैं। संसार का रूप परिवर्तनशील है। यहाँ कोई वस्तु एक स्थिति में रहने वाली नहीं है, मैं इसी सत्य का इस बार तुम्हें दर्शन दिलाने यहाँ आया हूँ।"
यह सुनकर रूपकोषा बोली, "महाराज ! यहाँ धर्म लाभ या ज्ञान चर्चा की आवश्यकता नहीं है। यहाँ तो अर्थ लाभ की आवश्यकता है। अर्थ वर्षाओ या कोई ऐसा मार्ग बतादो जिससे अर्थ से भण्डार भर जाये। मैं आपका अभिनन्दन करती हूँ, आशीर्वाद के लिये नहीं किन्तु अर्थ के लिये । कृपया रंगभूमि के अनुकूल रूप बनाकर हमारे मन को सरसाओ।
जो जैसा होगा वह दूसरों को भी वैसा ही बनाना चाहेगा, यह संसार का नियम है। अपशब्द का बदला यदि अपशब्द से नहीं देना है, तो अपशब्द के प्रत्युत्तर में निरुत्तर रहना, यह अपशब्द बोलने वाले को हराने की सर्वोत्तम कला होगी। काटे का जवाब फूल से देना सज्जनाचार है। अपशब्द कहने वाले को अपशब्द से प्रत्युत्तर नहीं दिया जाये, तो देखने वाला तृतीय व्यक्ति अपशब्द कहने वाले को ही बुरा कहेगा। स्थूलभद्र ने आत्मबल प्राप्त किया था। उसने रूपकोषा से ठहरने का स्थान मांगा और रूपकोषा से कहा कि मुझसे एक हाथ दूर रहकर अपने सभी . साधनों का प्रयोग करती रही। उसने रूपकोषा की आशाओं पर तुषारापात कर दिया। "पकोषा अपने भौतिक बल पर विश्वास करती थी और पुरुष की दुर्बलता पर विजय