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आध्यात्मिक आलोक
235 मिथ्यात्व में जब साधक कुछ कह जाता है, तो वह परदर्शन है, अज्ञान दशा है। आत्मा के शुद्ध भाव में जो बात कही जाती है, वही स्वदर्शन है। भगवान ने आनन्द को बंधमार्ग पर मार्ग की प्रशंसा करने से रोका।
__ हस्तीतापस नामक एक साधु ने नियम कर रखा था कि मैं कन्द, मूल, फल और सब्जी न खाकर एक हाथी को मार कर खाऊंगा, इससे अधिक जीवों की हिंसा बच जायेगी। हस्ती तापस का यह विचार परभाव है, अज्ञान है। उसने सोचा अनेक अनाज के दानों को नष्ट करने के बदले एक बड़े जीव को मार कर खा लेना अच्छा है, किन्तु यह तर्क भ्रम पूर्ण है। हिंसा का छोटा-बड़ा होना जन्तुओं की गणना से नहीं है। स्थावर जन्तु में चेतना कम विकसित है, चींटी में कुछ अधिक, पशु में और अधिक तथा मानव में सबसे उच्च चेतना का विकास है। पशु हमला होने के बाद अधिक शोर करता है, पर चींटी नहीं। एक अनार्य किसी सूअर को मारता है, तो चारों तरफ हल्ला मच जाता है। बकरे, सूअर और मुर्गी आदि की हिंसा में मनुष्य का मन अधिक कठोर होता है। चींटी के लिये मन को उतना कठोर नहीं करना पड़ता जरा पैर गिरते ही वह तड़फेगी और चेतना शुन्य हो जायेगी। स्थावर जन्तुओं की हिंसा में तड़पन, क्रन्दन आदि स्थूल चेष्टा बिल्कुल नहीं होगी। जितनी ही अधिक चेतनाशील जीव की हत्या होगी, उतनी ही बड़ी हिंसा समझी जायेगी, यह बाहरी लक्षण है।
वनस्पति की तरह मांस जीवन के लिये अत्यावश्यक नहीं है। मांसाहार के बिना मानव जीवन चल सकता है, परन्तु वनस्पति के बिना जीवन चलना अशक्य है। शेर का बच्या महीनों दूध पर गुजारा करता है। जंगली जातियों के बच्चे भी प्रारम्भ में दूध पर ही जीवन चलाते हैं। जैसे फलाहार जीवन में अनिवार्य है, वैसे मांसाहार नहीं। बेपरवाही या कठोर दिल करके, आर्तध्वनि सुनकर भी जो न पसीजे वह क्रूर मिथ्यात्वी या अभव्य होगा। यदि कोई हस्तीतापस की इसलिये प्रशंसा करे कि वह हस्ती को मारकर गुजर करता है और अनाज के हजारों जीवों की जान बचाता है, तो यह प्रशंसा परपाषंड-प्रशंसा रूप है।
यदि कोई व्यक्ति व्रत करे और उसमें रोटी एवं दूध दही नहीं खावे किन्तु प्याज, लहसुन आदि कन्दमूल खाता रहे तो यह प्रशंसनीय व्रत नहीं है। यह तो एक प्रकार का अज्ञान प्रदर्शन है। व्रत का तात्पर्य उत्तेजक एवं नशीली वस्तुओं के त्याग से आत्मा को शुद्ध एवं निर्मल बनाये रखना है। कोई शादी नहीं करे, उसका त्याग