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आध्यात्मिक आलोक
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राजनीति-शास्त्र आदि अनेक शास्त्र हैं, परन्तु वे जीवन की दुर्वृत्तियों पर शासन करने के शास्त्र नहीं हैं । इनसे लोक जीवन का काम चल सकता है, आध्यात्म जीवन का नहीं ।
अर्थ-शास्त्र मानव के मन में आर्थिक कामना पैदा करेगा और मानव में आकुलता ला देगा, बाधक तत्वों के आने पर विरोध होगा तथा आय के साधकों से मित्रता होगी। इस प्रकार अर्थशास्त्र आर्थिक दौड़-धूप में और काम शास्त्र कामना बढ़ाने में उपयोगी हो सकते हैं। किन्तु धर्म-शास्त्र कामना और प्रपंच त्याग करने का उपदेश देता है। अर्थादि शास्त्रों से इसका सिद्धान्त पूर्णतः भिन्न और पृथक है, अर्थ के रंग में हम अपना पराया भूल जाते हैं और हानि में मित्र से भी संबंध तोड़ लेते हैं। इस सम्बन्ध में तो कई बातें सुनी गयी हैं जैसे दहेज में इच्छानुसार अर्थ लाभ नहीं होने पर लड़की ससुराल से कभी पिता के घर नहीं आ पाती । परस्पर के सम्बन्ध खट्टे हो जाते हैं और अनपेक्षित वैर- विरोध बढ़ जाता है।
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धर्म शास्त्र तो किसी को भी चोट पहुँचाने का निषेध करता है। धर्म शास्त्र का अनुगामी या सेवक स्वयं हानि उठा लेगा, परन्तु दूसरे को धोखा नहीं देगा और आघात नहीं पहुंचायेगा। कुमार्ग में जाते समय उसका पैर लड़खड़ायेगा, हाथ कम्पित होगा और मन घबरा उठेगा। एक अर्थवान् मनुष्य दूसरे का धन छीनना चाहेगा, परन्तु धर्म शासन वाला व्यक्ति स्वप्न में भी दूसरे के धन पर आँख नहीं उठायेगा। धर्म-शास्त्र में अज्ञान और मिथ्यात्व को मिटाने की शक्ति रहती है। यदि अपने आप में परमार्थ मिलाना है, तो परमार्थ के ज्ञाता लोगों की संगति करनी चाहिये और व्यर्थ की बात करने वाले प्रमादियों से सदा दूर रहना चाहिये ।
भक्त सूरदास ने बहुत ही सुन्दर शब्दों में कहा है"तजो रे मन हरि - विमुखन को संग | जाके संग कुबुधि उपजत है, पड़त भजन में भंग ||9|| काहि कहा कपूर चुगाये, श्वान नहाये गंग / खर को कहा अरगजा लेपन, मर्कट भूषण अंग ||२||
कुसंगति में बैठकर मनुष्य को अपना जीवन काला नहीं करना चाहिये। कुसंगति की पहचान के लिये भक्त कवि ने ठीक ही कहा है कि जिसकी संगति से कुबुद्धि उपजती हो, मन में पाप-वासना जागृत हो एवं भजन में बाधा आती हो तो निश्चय ही वह कुसंगति है। जिसकी संगति से सुबुद्धि उत्पन्न हो, दुर्व्यसनों का परित्याग हो, और अहिंसा, सत्य तथा प्रभु भजन में मानव की प्रवृत्ति हो, वह सुसंगति है। कहा भी है