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आध्यात्मिक आलोक
मानव-जीवन को आदर्श बनाने के लिए आवश्यकता का परिमाण आवश्यक है। क्योंकि आवश्यकता जितनी अधिक बढ़ेगी पाप एवं आरम्भ भी उतना ही अधिक बढ़ेगा । देखा जाता है कि आवश्यकताओं से प्रेरित मानव जघन्य से जघन्य काम करने पर भी उतारू हो जाता है । वह नहीं सोच पाता कि क्षणभंगुर जीवन के लिए क्षणभंगुर आरम्भ ठीक है या नहीं ? वह अपनी आवश्यकता से इतना अन्धा हो जाता है कि भले बुरे का कुछ विचार ही नहीं कर पाता । बच्चे से जवान की आवश्यकता अधिक होती है । बड़े होने पर अपने-पराए का भेद समझने लगता है। जैसे आवश्यकता आविष्कार की जननी है, उसी प्रकार आवश्यकता पाप की भी जननी है।
आवश्यकता दो प्रकार की होती है-अनिवार्य और दूसरी निवार्य । खाना, पीना, पहिनना, मकान आदि अनिवार्य आवश्यकताएं हैं, क्योंकि जीवन-निर्वाह के लिए सबको इनकी आवश्यकता होती है । इनके बिना काम नहीं चल सकता । इन
आवश्यक वस्तुओं की भी दो कोटियां हो जाती हैं ७ उपभोग्य वस्तुएं और (परिभोग्य वस्तएं । एक बार काम में लेने पर जो वस्तुएं निकम्मी हो जावें यथा भोजन, फल मेवा आदि, इनका सेवन उपभोग है । कपड़ा पलंग, फर्नीचर आदि अनेक बार तथा दीर्घकाल तक उपयोग में आते रहते हैं, अतः इनको परिभोग्य कहा जाता है।
आनन्द ने अपनी अमित आवश्यकताओं को सीमा में करने का संकल्प लिया। यह सांतवा व्रत है; इसको भोगोपभोग भी कहते हैं । दैनिक आवश्यकताओं की यहां एक तालिका बतला दी है । जैसे :
(७) उल्लणिया विधि - प्रातःकाल मनुष्य जब उठता है, तो सर्वप्रथम हाथ-मुंह धोकर एक वस्त्र से पोंछता है । श्रीमंत ही नहीं, साधारण गृहस्थ के घरों में भी अनेक प्रकार के तौलियों का प्रयोग किया जाता है | आनन्द ने इसके लिए सीमा निर्धारित की कि आज से मैं एक मोटा रोएदार गुलाबी कपड़े का ही उपयोग करूंगा अन्य का नहीं।
) दातौन विधि - शौच के पश्चात दंतशुद्धि के लिए. दातीन की आवश्यकता होती है और उस उपयोग में आने वाली वस्तु दो प्रकार की हो सकती हैं : (१) सचित और (२) अचित्त । सचित्त वस्तु के अन्तर्गत नीम, बबूल आदि वृक्षों के डंठलों का प्रयोग होता है तथा अचित्त वस्तु में कोयला, राख तथा मंजन आदि । प्राचीन समय में जहां कोड़ियों के खर्च और थोड़े आरम्भ में यह आवश्यकता पूरी हो जाती थी, वहां आज इसके लिए भी बड़े-बड़े कारखाने खुले हैं।