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आध्यात्मिक आलोक
123 कुचलना नहीं चाहता । उसने माल्य-धारण का उद्देश्य प्रतिकूल हवा के प्रदेश को रोकना भर समझकर पद्म (कमल) और मालती के फूल के अतिरिक्त सब प्रकार से माल्य-धारण का त्याग कर लिया ।
मुनष्य जाति में हिंसा बढ़ाने का बड़ा कारण अज्ञान है। अज्ञानवश मानव अमंगल को मंगल मान लेता है। स्पष्ट है कि दूसरों को रुलाने का कार्य मंगलकारी नहीं होता। शादी, ब्याह अथवा धार्मिक उत्सवों में भी किसी जीव को मारना तथा शोभा के लिये केले आदि वृक्षों की डालियां काटकर लगाना, मंगलजनक नहीं होता । इससे तो उन जनहितकारी वृक्षों का अकारण नाश होता है। प्राचीन समय में घर की शोभा बढ़ाने के लिये आंगन में कदली आदि के वृक्ष लगाये जाते थे । प्राचीन काव्यों में इसका महत्व वर्णित है । किन्तु आज की तरह केले के खंभे और आम की डालियां काटकर लगाना यह कैसी शोभा ? वृक्ष को उजाड़ा और घर में कचरा किया। विवेकीजनों के लिये सोचने की बात है कि आम के पत्तों का वन्दनवार लगाकर जो आनन्द मानते हैं, वे लोग वृक्षों के अंग भंग का दुःख भूल जाते हैं । आनन्द ने महारंभी से अल्पारंभी का जीवन स्वीकार किया और अपनी आवश्यकता को कम कर व्यर्थ की हिंसा से अपने आप को बचाया।
समाज के अधिकांश लोग अनुकरणशील होते हैं। वे अपने से बड़े लोगों की नकल करने में ही गौरव अनुभव करते हैं। इस प्रकार देखा-देखी से समाज में गलतियां फैलती रहती हैं। गीता में भी कहा है
यद यदाचरति श्रेष्ठस्तद् तदेवेतरो जनः ।
सायत् प्रमाणं कुरुते, लोकस्तदनुवर्तते ।। आत्मा का स्वरूप जगत् के समस्त प्राणियों में विराजमान है। विश्व-परिवार के सांप, बिच्छु, चूहे आदि भी सदस्य हैं, किन्तु आज के मानव उनसे डरते और रोषवश उन्हें मार डालना चाहते हैं। मगर उन्हें समझना चाहिये कि जैसे एक परिवार में गरम, नरम स्वभाव के अनेक लोग रहते हैं और उनके स्वभाव वैभिन्य के होते हुए भी पारिवारिक परम्परा में कोई आंच नहीं आने पाती, वैसे ही प्राणी जगत् में भी विभिन्न स्वभाव के प्राणी रहते हैं और उन्हें रहने का अधिकार भी होता है । परिवार में क्रूर स्वभाव के लोगों से दूर रहा जाता है या अधिक हुआ तो उनको अलग कर दिया जाता है, पर मारा नहीं जाता । ऐसे हिंसक प्राणी को भी डराकर दूर भगाया जा सकता है ।
__ मनुष्य इन क्रूर स्वभाव वाले प्राणियों से मैत्रीभाव रखने लगे, तो सात्विक स्वभाव के बल पर इनकी भी क्रर-वृत्ति बदली जा सकती है। प्राचीन समय के