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आध्यात्मिक आलोक को देखते-देखते अदेखा कर देती है, मोह से प्राणी देखते देखते अदेखा और जानते भी अनजाना बन जाता है।
ब्रह्मदत्त को चित्त मुनि ने समझा कर कहा :-'हे राजन् ! अधिक नहीं कर सको, तो कम से कम अनार्य कर्म (चोरी, हिंसा, व्यभिचार आदि) को राज्य में न होने दो, चोरी को रोककर जनता को निर्भय बनाओ तथा व्यभिचार से सदाचार की ओर उन्हें अग्रसर करो।" परन्तु ब्रह्मदत्त को ऐसी सीधी बात भी समझ में नहीं आयी और वह सुमार्ग पर नहीं चल सका। उसने मुनि से कहा: "हे महामुनि ! मैं सारी बातें जानता हूँ परन्तु काम, भोग और मोह में फंसा होने से, मेरी स्थिति तो ऐसी हो गयी है जैसे किसी कम जल वाले, कीचड़ प्रधान जलाशय में पानी की लालसा से गया हुआ हाथी, कीचड़ में फंसकर, आगे-पीछे नहीं जा पाता। वह बीच में ही फंसा किनारे के पदार्थों को देखता तथा उसके सुख को समझकर भी बाहर नहीं आ सकता। इसलिये महाराज ! मैं आपके उपदेश पर चलने में असमर्थ हूँ।" कहा भी है कि
नागो जहा पंक जलावसनो, दळु थलं नाभिसमेइ तीरं।
एवं वयं काम गुणेसु गिद्धा, न भिक्खुणो मग्गमणुब्बयामो ।
अनजान को समझाना आसान है, जानकार ज्ञानी उसे अज्ञानता से निकाल सकते हैं, परन्तु जो जानते हुए मोह वश अनजान हैं, उनको समझाना महामुश्किल है। वे अज्ञान के कारण पाप में फसे नहीं होते, उनके फंसने का कारण मोह होता है। उनमें मोह के कारण ही त्याग की बुद्धि उत्पन्न नहीं होती। यदि पाप की प्रकृतियों को झकझोर दिया जाये तो पुण्य की प्रकृतियां सहज चमक उठे। शुभमति के उदय से यह जानना चाहिये कि मनुष्य को पुण्य का उदय है। सदाचार और देव-गुरु-धर्म के प्रति प्रीति पूर्व जन्म के पुण्योदय से ही प्राप्त होती है। यह एक प्रकार से मापक यन्त्र
बाहर की रमणीक वस्तु को देखकर यदि लालसा की जाये और उसके लिये मिथ्यामार्ग को आदरणीय समझा जाये तथा गुणीजनों की शारीरिक कुरूपता देख कर उनसे घृणा की जाय, तो यह सम्यग्दर्शन का दोष है । पापों से बचने की दृष्टि वाला साधक किसी व्यक्ति में गुणों को देखकर आदर करता है तो यह सम्यक् दृष्टि
मिथिलेश महाराज जनक बड़े आत्मज्ञानी थे। गृहस्थ होते हुए भी उनमें . आत्म-ज्ञान की विशिष्टता थी। ज्ञानियों के लिये वास्तव में गृहस्थ का वैभव आकर्षण