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[ ४३ आन्तरिक परिवर्तन
शास्त्रकारों ने कहा है कि द्रव्य की तरह साधक जीवन भी परिवर्तनशील है सदा एकसी स्थिति नहीं रहती। उसमें आन्तरिक और बाह्य परिवर्तन होते रहते हैं। आहार, विहार एवं भाषा से बाह्य परिवर्तन होता है जो देखा जा सकता है, क्योंकि उसमें बाह्य साधनों का संयोग रहता है। किन्तु आन्तरिक परिवर्तन में बाह्य साधनों का हाथ नहीं रहता । सोकर उठने तथा बाहर निकलने में तेल, कंघा और साज-सज्जा आदि ने सहायता दी, इसलिये परिवर्तन आया। इसी प्रकार क्रोध, मान, स्नेह, लोभ, 'हर्ष, शोक आदि का रूप सहेतुक और अहेतुक तीव्र मन्द होता रहता है। भावना में परिवर्तन होने से बाह्य आचार में भी परिवर्तन हो जाता है। इसी से प्राणी उच्च से नीच और नीच से उच्च बनता है।
जीवन परिवर्तन में प्रमुख कारण काल, कर्म संयोग, परिस्थिति और अध्यवसाय माने गये हैं। संसार में जीवन परिवर्तन का चक्र हर क्षण चलता ही रहता है। जब तक शरीर है, शरीरधारी के इस चक्र का भी अन्त नहीं होता। भगवान महावीर ने कहा है
जाता है।
"एगया देवलोएस, नरएस वि एगया । एगया आसुर कार्य, आहाकम्मेहिं गच्छई" ।।
• अर्थात् जीव कभी स्वर्ग में कभी नरक में तो कभी कर्मानुसार असुर योनि में
मनुष्य कर्म के कारण ऊपर चढ़ता है, जैसे वायु के संग से धूल का कण ऊपर चढ़ता है और अशुभ कर्म से नीचे आता है मगर स्वर्ण कण ऊपर नहीं जाता । धूलि कण ऊपर चढ़कर आकाश में सूर्य को ढक देता है और वर्षा से नीचे आ गिरता है। इसी तरह शुभ कर्म रूपी हवा से जीवन भी चढ़ता है। जिन निमित्तों से वह गिरता है, उनको हटाने से वह ऊपर चढ़ता है, यह एक मानी हुई बात है।