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आध्यात्मिक आलोक अपनी पत्नी के गले में हाथ डालकर बाजार में चले, तो यह असामाजिक कार्य है, उसी प्रकार सामूहिक रूप से मांस भक्षण भी असामाजिक कार्य है । मांस खाने वाले यदि चुपचाप घर में खालें, तो वह बुराई अपने तक ही रहेगी, पर खुले रास्ते में लाना, बेचना और प्रचार करना समाज में बुराई फैलाना है, यह नीति विरुद्ध है। इस प्रकार अहिंसक जनता और सात्विक लोगों के मन पर चोट पहुँचाई जाती है । यह न्याय संगत नहीं कहा जा सकता ।
अगर किसी का पड़ोसी धर्मशून्य और अत्याचारी है, तो उसके पास से आया हुआ धन भी धर्म शून्य ही रहेगा । उससे चाहिये जितना आनन्द आना तो दूर, बल्कि कष्ट ही बढ़ेगा और मन उलझनों में फसेगा । यदि माता-पिता अपने बच्चों के माध्यम से चोरी करवावें या हिंसात्मक कार्य करवावें, तो यह भी महान् पाप है। नगर की खराबियों के साथ आँख-मिचौनी नहीं की जानी चाहिए । भाई, बच्चों को समझाने में जैसे हितभावना रहती है, वैसे ही पड़ोसी को समझाने में भी हित भावना होनी चाहिए । हिंसा घटने से समस्त संसार की भलाई होगी । लोगों का परस्पर प्रेम बढ़ेगा और आपस में शांति तथा सौमनस्य का प्रादुर्भाव होगा । ईर्ष्या, कलह, द्वेष और विरोध का दमन होगा तथा पराये-वत् प्रतीत होने वाले लोग आत्मीयवत् दिखाई देंगे।
देखा जाता है कि अधिक उपजाऊ भूमि के स्वामी दुःख पाते हैं और रेगिस्तान के थली के किसान सुखी रहते हैं । इसका कारण यह है कि जीवन को मांजने वाला हमेशा सुखी रहेगा, चाहे वह रेगिस्तान में ही क्यों न रहता हो ? उनमें अहिंसा वृत्ति है।
मोटी चीज पकड़ने में आसानी रहती है और सूक्ष्म चीज पकड़ने में कठिनाई होती है । ऐसे ही आवश्यकता पर नियन्त्रण होने से अन्य गुणों की धारणा में सुगमता होगी । अतएव जीवन सुधार के लिए प्रथम आवश्यकताओं को कम किया जाना चाहिए।
स्थूलभद्र ने राजमंत्री के विभव विलास को ठोकर मार दी और परम-आनन्द का अनुभव किया । साधना के मार्ग में चलने से मनुष्य में निर्भयता आती है और यही कारण है कि स्थूल भद्र ने रूपकोषा के घर चातुर्मास करने की हिम्मत की । उनका यह काम साधारण नहीं था । आग के पास यदि घी जाय, तो बिना पिघले नहीं रह सकता । किन्तु गुरु ने अच्छी तरह जान लिया था कि यह धीर, वीर और गंभीर है । इसमें इतना आत्मबल है कि यह संभल कर कदम रखेगा और स्वयं अमल धवल रह कर गुरु के नाम को भी प्रशस्त बनाएगा । गुरु की आज्ञा पाकर