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आध्यात्मिक आलोक
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । "
अर्थात् कर्म करने में ही तुम्हारा अधिकार है, फलों में कभी नहीं ।
साधना करते हुए क्रियाफल में संदेह नहीं करना चाहिए, धर्म के फल मधुर होते हैं, पर मिलेगा या नहीं ? सत्य का फल भी अच्छा है पर मिलेगा कि नहीं ? इस प्रकार संशय करना दूषण है शास्त्र में बात आती है-किसी खेत की बाड़ के पास एक मयूरी अंडे दे रही थी। दो मित्रों ने मयूर के पालने की इच्छा से उनके दोनों अण्डे रख लिए। दोनों ने मुर्गी के बच्चों के साथ अंडे पोषण को रख दिए, ताकि सेवन विधि में कोई कमी नहीं रहे। एक व्यक्ति अंडे पर दृष्टि रखता, पर दूर से ही देख लेता । किन्तु दूसरा विकलता वश उस अण्डे को नारियल के समान हिलाता रहता प्रथम मित्र के अण्डे से बच्चा निकला, उसने उस बच्चे का उचित पोषण किया और बड़ा होने पर उसके नाच से मनोविनोद करने लगा । पर दूसरे मित्र के अण्डे से बच्चा नहीं निकला । बार-बार हिलाने से उसका अण्डा गल गया, यद्यपि मुर्गी से बराबर सेवा करायी गई। फिर भी शंका हिलाने के कारण उसका अण्डा नष्ट हो गया ।
व्रत या करणी अण्डा है और मिलने वाला फल बच्चा है । इसी प्रकार धर्म, व्रत या करणी द्वारा यदि बच्चा रूपी आनन्द का गुण प्राप्त करना है तो उसे संशय द्वारा हिलाना-डुलाना ठीक नहीं, व्रत को ले लेने मात्र से पाप कर्म नहीं करेंगे, वरन् उसको पूर्ण निभाने से ही फल मिलेगा । तो आनन्द ने महावीर स्वामी के समक्ष इस 'शंका' दोष को भी त्याग दिया ।
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जो किसान भूमि की तैयारी में बीज, खाद, सिंचन आदि समुचित प्रकार से करता है, वह फसल के बारे में विश्वस्त रहता है । यद्यपि वह उसकी सुरक्षा के लिए . सजग रहता है फिर भी उसे फसल के बारे में कोई शंका नहीं रहती । द्रव्य लाभ में जैसे परिश्रम द्वारा किसान सफल होता है, उसी प्रकार भाव लाभ के लिए साधक को भी कर्मठ होने की आवश्यकता है। सर्दी, गर्मी, भूख, प्यास आदि सभी जैसे द्रव्यलाभ के लिए मनुष्य सहता है, वैसे भाव लाभ के लिए यदि हर्षित मन से कठिन श्रम सहन करें तो कल्याण हो सकता है ।
भौतिक साधना में भी कठोर श्रम के परिणाम स्वरूप थोड़ा लाभ मिलता है, तब आध्यात्मिक साधना में जो हम बड़ा लाभ अक्षय आनन्द चाहते हैं, वह बिना परिश्रम के कैसे प्राप्त होगा ? जरा-सा कष्ट पहुँचने पर दूर भागना चाहेंगे तो सिद्धि कैसे मिलेगी ? छोटी-मोटी जमीन्दारी या गढी पाने वालों को उसके पीछे बहत मूल्य चुकाना पड़ा, कई गर्दनें देनी पड़ीं और बड़े-बड़े घाव सहने पड़े थे तभी उनके