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आध्यात्मिक आलोक पूर्वजों को जागीर मिली थी । जमीन का लाभ भी जब कठिन त्याग और बलिदान चाहता है तो आत्मानन्द के लाभ के लिए कठोर त्याग करना पड़े तो इसमें आश्चर्य किस बात का?
जो लोग धर्म को धर्मस्थान में छोड़कर जाते हैं, उसे ग्रहण नहीं करते, वे दुःख और विपदाएं भोगते हैं । दुःख हमारे पापों का फल है, यह सभी संस्कृतियों ने समवेत स्वर में स्वीकार किया है । आधि दैविक, आधि भौतिक और आध्यात्मिक त्रयताप सभी भूतकाल के कुकर्मों का फल है । दैविक ताप तो सामूहिक पापों का फल है । जैसे अपने बाल बच्चों को क्रीड़ा करते देख माँ-बाप को आनन्द आता है, उसी प्रकार अन्य छोटे-छोटे प्राणियों तथा उनके बच्चों के खेलकूद के प्रति सहनशीलता और आनन्द का व्यवहार न रखा जाय तो यह कैसा मानवीय व्यवहार है! नरभक्षी जानवर जब मानव पर आक्रमण करते हैं तो मानव शोर करता है । तब यदि पशु-पक्षियों के परिवार में से किसी प्राणी को कोई मानव ले जाय, तो क्या उनमें खलबली नहीं मचेगी?
मोर नाच कर क्या आनन्द की सृष्टि करता है, तथा कोयल की मीठी तान और तोते की बोली कितनी सुहावनी लगती है ? यदि ऐसे सुन्दर पक्षियों को नष्ट कर दिया जाय, तो उनके नृत्यादि का आनन्द मानव को कैसे प्राप्त हो सकेगा ? सुरक्षित वनों के पशु-पक्षियों के मारने पर प्रतिबन्ध रहता है । किसी जाति विशेष का पशु-पक्षी हो तो उसे ध्यानपूर्वक पाला जाता है । जो जानवर दूसरे देशों में नहीं पाए जाते, वह देश उन पशु-पक्षियों के लिए गौरव मानता है। वे पशु-पक्षी और मछली आदि मनुष्य से न तो स्थान और न दाना ही मांगते हैं - वे कोई क्षति भी नहीं पहुँचाते, फिर भी मानव उनसे मैत्री-भाव न रख कर दुश्मनी क्यों निकालता है ?
कोई दूसरों की जान लेकर सुखी रहना चाहेगा, तो वह कैसे सुखी रह सकेगा? कहा भी है कि
करे बुराई सुख चहे, कैसे पावे कोय।
रोपे पेड़ बबूल का, आम कहां से होय ।। हिन्दु धर्म में तो चौबीस अवतारों में मत्स्यावतार, कश्यपावतार आदि रूप से मत्स्य आदि को भी आदर दिया है । श्रीकृष्ण ने गौओं के बीच रहकर गोपालन किया, वे पशुओं के दुलारे थे । आज के कृष्ण भक्तों को इस पर सोचना चाहिए।
___ आज मनुष्यों में स्वार्थपरता आई हुई है। खाने वालों में रसना लोलुपता, बेचनेवालों में लोभ और नहीं खाने वालों में दब्बुपन आ गया है । जैसे कोई