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आध्यात्मिक आलोक
223 पानी के समान खराब कर्म के भार से मानव का भी पतन होता है और हवा रूपी सुकर्म को पाकर ऊपर उठता है।
स्थावर जन्तुओं में कुछ शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के जीव हैं। एक हीरे के रूप में मुकुट में जड़ा जाता है तथा दूसरा फर्श में या उससे भी गयी गुजरी जगह में लगाया जाता है। हीरे को पैर तले देखकर लोग सहर्ष उठा लेते हैं
और सुरक्षित रूप में रखते हैं परन्तु पत्थर को पैर तले आने पर, बगल में फेंक देते हैं । नागरिक लोगों की संगति में आया हुआ किसान भी हीरे को परख लेता है। एक ही पार्थिव जाति के होकर एक सम्मान पाता है और दूसरा तिरस्कार। इसका कारण स्थावर जन्तुओं में भी पाप-पुण्य है।
मनुष्य गति पुण्य प्रकृति का फल है, परन्तु इसमें भी पाप प्रकृति वाले लाखों नर हैं। मनुष्य गति की दृष्टि से देखा जाये तो पुण्य प्रकृतियों की अपेक्षा जब पाप प्रकृतियां प्रबल हो जाती हैं, तो काम, क्रोध, लोभ, अहंकार, असाता आदि ताण्डव नाच करने लगते हैं।
धन एवं बाल-बच्चे पाने मात्र से ही पूर्ण पुण्योदय नहीं होता। ये तो पुण्य प्रकृति के बाह्य फल हैं। जब तक ज्ञान, विवेक, सद्भाव एवं शुभ रुचि प्राप्त नहीं होती, मानव बाह्य पुण्य का फल पाकर भी नीचे गिर जाता है। हजारों ऐसे उदाहरण हैं जिनमें मानवं धन जन सम्पन्न होकर भी ऐसे गिरते हैं कि कोई उनका नाम लेने वाला नहीं रहता। लाखों करोड़ों की सम्पत्ति तथा भरे-पूरे परिवार को जाते क्या देर लगती है। आंधी में तिनके की तरह वे देखते-देखते उड़ जाते हैं। कल तक जिसके घर में हर तरह की खुशियाली छायी हुई थी आज वहाँ गम ही गम नजर आता है। ये सब क्या हैं ? पुण्य की कमी और पाप का उदय, नहीं तो इन्हें क्या कहें।
किसी मनुष्य में क्रोध, मान, अल्प मात्रा में है तो वह रोग ग्रस्त होने पर भी खीजेगा नहीं और धनी व्यक्ति रोग ग्रस्त की दशा में सेवा, शुश्रूषा और उपचार की थोड़ी भी कमी देखता है तो क्रोध से लाल बन जाता है और जो नहीं बोलना चाहिये ऐसी बेतुकि बातें बोल देता है । उसके व्यवहार से साफ पता चलता है कि उसकी आत्मा नीचे गिरी हुई है। ब्रह्मदत्त जैसा बड़ा राजा भी पाप कर्म करने लगा; तो पतित हो गया, इतनी विशाल सम्पदा, अखण्ड प्रभुता, और इच्छा भोग पाकर भी वह पाप कर्म के कारण गिर गया।
धन, वैभव, मनुष्य योनि, सुन्दर वर्ण, शुभवाणी और प्रभुता पुण्य कर्म के । कारण प्राप्त है परन्तु अज्ञान और मोह ने उसे घेर रक्खा है। यह पाप प्रकृति प्राणी