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[३०] दो धाराएं
अनन्त काल से मान हृदय में दो धाराएं प्रवाहित होती दीख रही हैं-एक शुभ विचारधारा और दूसरी अशुभ विचारधारा । इनमें से शुभ धारा जो ज्ञान विरागमय है, वह स्वभावाभिमुख होने से निजधारा तथा विषय-कषाय की परिणति विभावाधिमुख होने से यह आत्मा के लिये पर धारा है । एक ही भूमि में आस-पास दो तरह के कुए मिलते हैं जिनमें एक का पानी मीठा और दूसरे का खारा होता है । मीठे पानी के स्रोत को नहीं पहिचानने के कारण ही मनुष्य उसे नहीं ले पाता और अनायास खारा पानी निकल आता है। ऐसे ही हृदय की भूमिका में भी दुर्भाव और सद्भाव रूप दोनों तत्व मौजूद हैं । सदभाव मधुर पानी का स्रोत तथा दुर्भाव खारे पानी का स्रोत है।
सद्भाव रूपी मधुर पानी के लिए प्रयास करना पड़ता है, किन्तु खारे पानी के लिए श्रम नहीं करना पड़ता । ऊंची भूमि से जैसे नीची भूमि में पानी बहता है, तो नल लगाने की आवश्यकता नहीं होती, वैसे दुर्भाव के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता, सुमेरु पर्वत का पानी भी नीचे भूतल पर आ जाता है, पर भूतल से सुमेरु पर जल चढ़ाना हो, तो बड़ी कठिनाई होगी, बड़े साधन और शक्ति की आवश्यकता होगी । सद्गुरु सत्संग, सद्-अध्यवसाय और योग्य आहार-विहार के द्वारा विचार नीचे से मुड़कर ऊंचे चढ़ते हैं। यदि सहारा न मिले तो वे स्वतः नीचे गिर जाएंगे।
संसार को आध्यात्मिक सन्देश देने वाले महापुरुषों का कथन है कि दुःख का कारण आवश्यकताओं को वश में नहीं करना ही है । एक महात्मा ने एक राजा को थोड़े में ठीक ही कहा है
"आपदां कथितः पन्था, इन्द्रियाणामसंयमः। तज्जयः सम्पदा मार्गा; येनेष्ट तेन गम्यताम् ।।"