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आध्यात्मिक आलोक
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आवश्यक प्रयोजन से की गई विकथा, प्रमाद होकर भी अर्थ दण्ड है । पर बिना विवेक से की गई असम्बद्ध कथा अनर्थ का कारण बन जाती है । अनावश्यक बातों में निन्दा तथा चुगली भी होगी । आवेगपूर्ण बातों से कई बार मारपीट और समाज में विष तक प्रसारित हो जाता है । अतः व्रती को व्यर्थ की पटेलगिरी या गप्पबाजी में नहीं पड़ना चाहिए । क्योंकि प्रमाद में मनुष्य का मूल्यवान् समय व्यर्थ चला जाता है । बुद्धि की तुला पर यदि जीवन का तोल करें, तो मालूम पड़ेगा कि एक युवक के लिए सात घण्टे की निद्रा पर्याप्त है । आवश्यक निद्रा नहीं लेने से बदन में सुस्ती और सिर में भारीपन रहेगा, परन्तु खाली समय में यों ही निद्रा में पड़े रहना, यह अनावश्यक प्रमाद और मूर्खता की निशानी है । स्नान के समय कंघी करना, कपड़े की तह लगाना और न जाने क्या-क्या सजाने में मनुष्य बहुत-सा समय नष्ट कर डालता है । ताश, चौपड़, शतरंज आदि खेल में समय नष्ट करना प्रमाद है। खेल की हार-जीत में लड़ाई और बिना देखे घूमने में हिंसा वृद्धि प्रत्यक्ष है । इसमें मन बहलाने की अपेक्षा यदि कुछ आदमी एकत्र होकर धर्मचर्चा में जुट जाएँ, तो कितना अच्छा रहे । विनोद के साथ वहां समय काटने का भी उत्तम जरिया होगा और राड़-तकरार से बचकर कुछ ज्ञान-वृद्धि की जा सकेगी । अतः अज्ञान घटाकर स्वाध्याय में समय लगाना है, तो प्रमाद को हटाना ही होगा ।
समाज में ऐसे कुटुम्ब भी मिलते हैं, जिनके सदस्य नित्य स्वाध्याय करते हैं, क्योंकि उन्होंने उसे जीवन का आवश्यक काम समझ लिया है । जैसे - खाना, पीना, शौच आदि नित्य कर्म के लिए हर एक को समय मिल जाता है, अतिथि सत्कार तथा ऐसे ही अन्य कार्यों के लिए भी समय मिलता है, तो क्या स्वाध्याय के लिए समय नहीं मिलेगा ? यदि स्वाध्याय को नित्य का आवश्यक कर्म मान लिया जाय, तो सहज ही प्रमाद घट सकेगा । आवश्यकता है स्वाध्याय को दैनिक आवश्यक सूचि में नियमित स्थान देने की। फिर तो प्रमाद को अवसर ही नहीं मिलेगा । पूर्व काल के लोग अपने जीवन को नियमित रखते थे । हर एक कार्य के लिए उनका समय नियत होता था, जिससे प्रमाद को वहां अवसर ही नहीं मिल पाता था ।
बहुत से लोग दुर्व्यसन और नशेबाजी में प्रमाद को बढ़ा लेते हैं, जो अनर्थ दण्ड है । नदी, तालाब आदि में अकारण पत्थर फेंकना, वृक्ष के पत्ते बेमतलब नोच लेना, एवं खाने-पीने की वस्तु को खुले रखना, बीड़ी, सिगरेट या चिलम आदि की आग को इधर-उधर डाल देना, ये सब अनर्थ दण्ड हैं । मनुष्य को इससे बचना चाहिए, जैसाकि पहले भी कहा जा चुका है ।
कला, विज्ञान, कानून, राजनीति, अर्थ-शास्त्र और समाज शास्त्र आदि के पण्डित बन जाने पर भी अध्यात्म ज्ञान और जीवन निर्माण के लिए मनुष्य को सत्संग