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आध्यात्मिक आलोक
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देता है, उसी प्रकार धर्म भी सब की रक्षा करता है। कोई भिखारी, साधारण गृहस्थ, राजा, साधु, श्रीमंत और वीतराग हो धर्म सभी को गति देता है किन्तु धर्म गगन में स्वैर विहार करने वाले तो वीतराग अनगार ही हैं। जो क्षण पल में सारे विश्व की ज्ञान-यात्रा कर लेते हैं ।
जब तक आत्मशक्ति का विकास नहीं हो जाय, तब तक यह आश्चर्य लगने वाली वस्तु प्रतीत होगी । मनोबल एवं अनुभव की कमी से ऐसा होना कुछ असंभव नहीं, मगर यह सर्वथा सत्य है । आज का मानव भौतिक साधनों की वृद्धि और जोड़े हुए के रक्षण की चिन्ता कर रहा है किन्तु अनन्तकाल के संचित ज्ञान कोष को बेहोश होकर लुटा रहा है। भला ! इससे बढ़कर आश्चर्य की बात और क्या होगी कि हम भौतिक वस्तुओं को अपना समझ कर उसके लिए तो चिन्ता करते हैं पर आत्म-धन की चिन्ता नहीं करते । भूमिगत खजाने की खोज के पीछे हम मनःकोष को भूल से गए हैं। वस्तुतः मानव इस आन्तरिक धन, ज्ञान प्रकाश की चिन्ता न कर अपनी मूर्खता का इजहार कर रहा है ।
जैसे दरिया में कंकर या पत्थर पटका जाय तो एक लहर उठती है जो किनारे जाकर टकराती है, वैसे ही हमारी वाणी जब प्रसारित होती है, तो परमाणुओं में लहर उठती और वह सारे लोक में फैल जाती है । शास्त्र के इस सिद्धान्त पर वैज्ञानिकों ने खोज की और रेडियो का आविष्कार किया । आज घर-घर में रेडियो का कार्यक्रम सुनकर आप फूले नहीं समाते हैं और विज्ञान की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। जीवन में आरंभ और परिग्रह को सीमित करें, तथा ज्ञान का संचय करें, तो आत्मिक प्रकाश से जीवन झंकृत हो उठेगा और बिना रेडियो, टेलीविजन के ही सारा विश्व हस्तामलक की तरह दिखाई देगा ।
आवश्यकतावश होने वाली हिंसा से यदि आप अपने को बचा नहीं सकते, तो अकारण होने वाले पाप कर्मों से तो अपने को जरूर बचाइए । जो अनावश्यक पाप नहीं छोड़ सकता, वह अर्थ दण्ड से उत्पन्न पाप कैसे घटा सकेगा ? आनन्द ने नियम के द्वारा अपने को इन सबसे बचा लिया, उसे भगवान् की संगति का लाभ मिला, फिर भला वह कैसे अपने को निर्मल नहीं कर लेता ? जैसे निर्मल जल से वस्त्र की शुद्धि होती है, उसी प्रकार सत्संग से जीवन पवित्र होता है । निर्मलता, शीतलता और तृषा निवारण जल का काम है । सत्पुरुषों का सत्संग भी ऐसे ही त्रितापहारी है । वह ज्ञान के द्वारा मन के मल को दूर करता, सन्तोष से तृष्णा की प्यास मिटाता और समता व शान्ति से क्रोध की ताप दूर करता है । काम एवं लोभ की आग कभी शान्त होने वाली नहीं । जैसा कि श्रीकृष्ण ने भी कहा है
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