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[४०] हेयोपादेय का विवेक
प्रभु महावीर स्वामी ने बतलाया कि यदि पाप से बचना है तो बन्ध के कारणों का परित्याग करो । हेय, उपादेय का परिज्ञान कर, ग्रहण योग्य का ग्रहण तथा छोड़ने योग्य का परित्याग करने से ही मानव अपना कल्याण कर सकता है। परिज्ञान नहीं है तो मोह का झोंका आने पर उसका पतन तथा स्खलन हो जायेगा, वह ऊपर नहीं उठ सकेगा । परिज्ञान का माध्यम स्वाध्याय तथा सत्संग है।
समझ में नहीं आने से मनुष्य ग्रहणीय का ग्रहण नहीं कर सकेगा और विद्या द्वारा वस्तु तत्व का निश्चय नहीं हुआ, तो परिज्ञान की सम्यक् परिणति भी नहीं होगी। आनन्द आज सम्माननीय है, क्योंकि उसने हेयोपादेय का परिज्ञान कर छोड़ने योग्य का परित्याग कर दिया है। अनर्थ दण्ड का त्याग करने से आनन्द को हल्कापन मिला
और उसकी आत्मा सर्वथा सबल एवं स्वस्थ हो गई । इस आत्मिक हल्केपन को कायम रखने के लिए व्रत ग्रहण आवश्यक है जिसके लिए आनन्द ने आठ व्रत धारण कर लिए जैसा कि कह चुके हैं। अब शिक्षा व्रत की बात आती है । शिक्षाव्रत समय पर आराधन किया जाता है । जब जिसका समय आवे उस समय साधक उसको धारण करे।
शिक्षा व्रत चार हैं-७) सामायिक (२) देसावगासिक ६) पौषध और (1) अतिथि संविभाग । भोजन के समय किसी साधु सन्त या व्रती का योग पाकर विधि से दान देना यह अतिथि संविभाग है । सामायिक में पाप को हेय समझ कर उसका परित्याग करना पड़ता है । जानना यह ज्ञ-परिज्ञा है । और प्रत्याख्यान से तात्पर्य निषिद्ध कथन है । नहीं चाहिए कहकर पाप का निषेध करना प्रत्याख्यान है। यह अल्पकालिक और आजीवन ऐसे दो प्रकार का होता है।