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आध्यात्मिक आलोक
211 दुपट्टा दे दिया गया । महाराज नन्द को बड़ा आश्चर्य हुआ । ठीक उसी समय महामुनि सम्भूति विजय का शुभागमन हुआ और स्थूलभद्र को उनके आगमन का सद्यः लाभ मिला | वह उनके चरणों में दीक्षित हो गया । गोस्वामी तुलसीदासजी ने ठीक ही कहा है
"जाके जेहि पर सत्य सनेह,
सो ते हि मिलत न कछु सन्देह ।" दीक्षा के उपरान्त स्थूलभद्र ने महामुनि सम्भूति विजय के चरणों में रहकर शिक्षा ग्रहण की और इस तरह कल का भोगी लोगों के देखते-देखते आज का परम योगी बन गया | चरण करण की शिक्षा प्राप्त करने के बाद स्थूलभद्र ने तपःसाधना की इच्छा गुरु के समक्ष प्रकट की। मन में पालन करने वाले व्रतादि को चरण और करने वाले को करण कहते हैं ।
काम करने का समय तरुण और युवावय ही है । इस उम्र में उत्साह और साहस मन में हिलोरें लेते रहता है । जवानी की उपमा साहित्यिकों ने उस गिरि नदी से दी है जो एक बार पर्वत छोड़ने पर तब तक रुकने का नाम नहीं लेती जब तक सागर में न मिल जाय । कोई भी काम क्यों न हो जवानी उसमें जूझने को सतत् तैयार रहती है। विघ्न बाधाओं से जवानी कतराती नहीं वरन् सतत् टकराती रहती है। कवि दिनकर ने ठीक ही कहा है
डरने लगे आग से तो फिर चढ़ती हुई जवानी क्या ?
जवानी बीतने पर मनुष्य में नये काम की क्षमता उतनी नहीं रहती। फिर तो आवश्यक जानकर करना पड़ता है चाहे काम पारमार्थिक हो या व्यावहारिक । अर्थ का उपार्जन, विद्या का अर्जन, धर्म, योग, तप और संयम की साधना-ये सब युवावस्था में ही अधिक संभव हैं। इस अवस्था में इन्द्रियाँ स्वस्थ और दुरुस्त रहती है। अतः कोई भी काम मन में ग्लानि उत्पन्न नहीं करता उल्टे काम करने की खुशी से तन-मन पुलकित होता रहता है । वस्तुतः जवानी ही जीवन का मूल्यवान् क्षण और अनमोल धन है। इसके जाने के बाद जीना स्वासों का ढोना मात्र रह जाता है।
स्थूलभद्र भी अपनी युवावस्था की शक्ति को योग, तप की साधना में लगाना चाहता है । वह सोचता है कि जो साधना करे वही साधक और उसी को सिद्धि प्राप्त होती है-अतः समय पर ही साधना करने से वह फलवती हो सकती है। साधु जीवन का एकमात्र उद्देश्य यह है कि वह साधना के द्वारा स्व और पर का जीवन समुन्नत बनावे । इसी प्रकार यदि हम सब भी साधना के क्षेत्र में अपना तन मन लगायें, तो अपना कल्याण कर सकते हैं ।