________________
[४१]
श्रद्धा और साधना जो शासन करे या सूचना दे, उसको शास्त्र या सूत्र कहते हैं । धर्म शास्त्र का काम कल्याण मार्ग की सूचना देना और अकल्याण मार्ग से बचाना है । हिताहित का सन्देश पाकर आगे जीवन में गति करना, स्पन्दनशील और हलचल वाला बनना, यह साधक के अधीन की बात है । ज्ञान पाकर साधक हेय त्याज्य कर्मों से विरत तथा ग्रहण योग्य में प्रवृत्त होगा । केवल प्रवृत्ति या निवृत्ति ही जीवन के लिए उपादेय नहीं है, वरन् दोनों का उचित सामंजस्य ही जीवन में निखार लाता और उसे चमकाकर लोकोपयोगी बनाता है । इसके लिए अनुभवी, ज्ञानियों की संगति विशेष लाभदायक होती है । बिना सत्संग के स्वयं सत्य की खोज करना सर्वसाधारण के लिए न तो संभव है और न लाभदायक ही । कारण जीवन छोटा है और ज्ञान अथाह, अतः लघुतरनी से जैसे अथाह समुद्र के पार पाने में कठिनाई होती है वैसी ही कठिनाई मार्ग दर्शक के बिना ज्ञान प्राप्ति में भी समझनी चाहिए ।
व्रत, दर्शन और चारित्र के मार्ग में श्रद्धा सहायक है। श्रद्धा ही सम्यक्त्व है । मिथ्या और सम्यग्दर्शन दो श्रद्धा के रूप हैं । सम्यग्दर्शन टकराने से बचाने वाला, भवसागर से पार करने वाला तथा उलझनों को सुलझाने वाला है और मिथ्यादर्शन सन्मार्ग गामी को भी भटकाने तथा कुपथ. पर ले जाने वाला है। भगवान् महावीर आनन्द के समक्ष यह विचार रखते हैं कि व्रत और दर्शन को ठेस पहुँचाने वाले मिथ्यात्व से साधक को बचे रहना चाहिए ।
जिससे व्रत की सीमा का उल्लंघन हो उसे अतिचार कहते हैं विनवास काल में श्रीराम की सहायता के लिए श्रीलक्ष्मणजो सेवा में चल रहे थे । एक समय पंचवटी में उसने कुटी के आस-पास चारों ओर रेखा खींच दी और सीताजी को लकीर के अन्दर रहने को कहा । उसी समय रावण संन्यासी बनकर वहां आया तो