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[३९] निश्चय और व्यवहार
__ भगवान महावीर स्वामी ने केवल लोगों को ही कल्याण का सन्देश नहीं दिया किन्तु अपने जीवन में भी आत्म-शुद्धि का पाठ अपनाया । उनकी कथनी और करनी में एकरूपता थी । यही कारण है कि संसार ने उन्हें शिक्षा देने का अधिकारी माना । वस्तुतः जो शिक्षा को जीवन में उतार ले, वही दूसरों को शिक्षा देने का पूर्ण अधिकारी होता है । वे गतस्पृह और वीतराग थे । विश्व के समस्त प्राणियों के प्रति उनके हृदय में असीम वात्सल्य और करुणा थी । उनने जीवन का साक्षात्कार किया और जग जीवों को दुःख से छुटकारा दिलाने का मार्ग बतलाया । तथा कहा कि दुःख कृत्रिम हैं, अपने बनाए हैं अतः इनका अन्त कुछ कठिन नहीं है । जैसे स्फटिक मणि में विभिन्न रंगों की झलक दीख पड़ती है। सफेद, लाल और काली वस्तु के अनुसार उसमें रंग दीखते हैं, ऐसे ही आत्मा भी स्फटिकमणिवत् निश्चय में शुद्ध है, परन्तु कर्मजन्य उपाधि से वह अशुद्ध एवं मलिन बना हुआ है।
भगवान् ने निश्चय दृष्टि और व्यवहार दृष्टि दोनों का तल-स्पर्शी बोध कराया । शिक्षा में उन्होंने व्यवहारिक मार्ग बतलाया कि मनुष्य कैसे दुःख मुक्त हो सकता है । गृहस्थ जीवन में रहते हुए, पूर्ण विरति का पालन नहीं करते हुए, सर्वथा पापों से मुक्त नहीं हो सकने पर भी. साधक संयमित जीवन व्यतीत कर सकता है। सभी मनुष्य स्त्री, पुरुष, किसान, व्यापारी और अधिकारी विवेकपूर्वक पाप से बच सकते हैं तथा सरलता से अपने जीवन का परम लक्ष्य प्राप्त कर सकते हैं ।
भगवान का कथन है कि सर्वप्रथम स्वरूप पर श्रद्धा करे, फिर निर्णय करो कि हम अपने संग लगे दोषों में कितने को आसानी से छोड़ सकते हैं और कितना नहीं, ये दो विकल्प हैं। जो अनर्थ पाप हैं, उन्हें त्याग करो फिर धीरे-धीरे अनिवार्य पापों के कारणों को घटाओ । कारणों को घटाने से पाप स्वयं घट जाएगा ।