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आध्यात्मिक आलोक मीठी-मीठी बातें चल रही हों, उस समय मनुष्य दो मिनट के बदले आधा घंटा रुक जाता है । प्रमाद के मीठे कचरे में मनुष्य ज्ञानादि गुण की हानि नहीं समझ पाता । ज्ञानी यदि प्रमादी बन जायेगा, तो नवीन ज्ञान का रास्ता बन्द हो जायेगा और पुराना ज्ञान भूल बैठेगा । इस प्रकार प्रमादी बनकर मनुष्य अपने दर्शन और चारित्र को भी मलिन कर देता है । गृहस्थ का जीवन विविध प्रकार के प्रमादों में उलझा होता है, अतः विवेकी पुरुष को उससे जितना बच सके, बचने का प्रयत्न करना चाहिए।
प्रमाद के मुख्य दो रूप हैं-एक मंद प्रमाद और दूसरा तीन प्रमाद । तीव्र प्रमाद सुध-बुध भुला देता है उसमें मानव कर्तव्या-कर्तव्य भूल जाता है, किन्तु मन्द प्रमादी प्रमाद को तत्काल छोड़कर जागृत हो सकता है । मंदप्रमादी प्रेरणापूर्वक साधना में लगाया जा सकता है । महा प्रमादी उठाकर बैठाने से भी स्थिर नहीं हो पाएगा
और गिर-गिर जाएगा । स्वाध्याय एवं भजन में उसका मन नहीं लग पाता, वह घर के लोगों के लिए भी भारभूत होता है । वैसे प्रमादी के लिए एक कवि गृहिणी की भाषा में कहता है कि
"पालो पाड़ो मति भगवान, ऐसा कर्म हीण लोगां सुं। पोर दिन आयां सूतो ऊठे, आलस ने नहिं छोड़े।
ले बीड़ी मुंडा में वो तो, ट्टी सामो दौड़े। पा. 191
प्रभुजी ! ऐसे लोगों के मुझे पल्ले मत डालना जो देरी से सोकर पहर दिन . चढ़े उठते हैं और उठते ही मुंह में बीड़ी सिगरेट लेकर टट्टी घर संभालते हैं । ऐसे अनावश्यक समय नष्ट करने वाले व्यक्तियों से क्या उम्मीद की जाय ? ऐसे शोचनीय दशा वाले, उग्र प्रमादी जन अपना जीवन सार्थक नहीं बना सकेंगे । अत्यन्त प्रमादी हिम-अजगर भी समय पाकर जागृत हो जाते हैं तो अनन्त शक्तिवाला नर सत्कार्य में क्यों प्रमाद करता है । प्रमाद तो बुरे कर्म में करना चाहिए जो लाभकारी सिद्ध होगा।
आचारांग सूत्र में भगवान् महावीर ने सतों से कहा कि "आज्ञा पालन में प्रमाद न करो और आज्ञा के बाहर उद्यम न करो" क्योंकि ये दोनों अवांछनीय हैं। आज्ञा के भीतर पुरुषार्थ और आज्ञा के बाहर आलस हितकर है। इससे जीवन का धन बचेगा । अनुभवी कवि ने ठीक ही कहा है
"क्रोध न छोड़ा, लोभ न छोड़ा, सत्य वचन क्यों छोड़ दिया ? 'खालस इक भगवान भरोसे, यह तन, मन, धन क्यों न छोड़ दिया ? प्रभु-नाम जपन क्यों छोड़ दिया ?"