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प्रमाद जीवन का शत्रु है
जीवन में साधना के लिए मिलने वाले अमूल्य अवसर को व्यर्थ में खोना बुद्धिमानी नहीं है । शास्त्र और सत्संग, साधना के लिए प्रेरणा देते हैं, मगर प्रमाद साधक को पीछे घसीट लेता है, जिसे शास्त्रों ने प्रमुख लुटेरा कहा है । सर्व विरति मार्ग के साधक साधु को भी प्रमाद नीचे गिरा देता है और जब इसका रूप उग्र हो जाता है, तब मानव आराधक के बदले विराधक बन जाता है । बंध के पांच कारणों में प्रमाद भी प्रमुख है । इसके अनेक भेद किए जाते हैं, परन्तु दो मुख्य हैं-एक द्रव्य-प्रमाद और दूसरा भाव प्रमाद । खाने-पीने, नहाने-धोने, भोग-उपभोग और खेल-कूद - नाटक आदि देखने में जो समय पूरा किया जाता है वह द्रव्य प्रमाद है । मद्य, निद्रा, विकथा, नशा, मज्जन आदि द्रव्य प्रमाद के कारण हैं ।
नशे के सेवन से मति में जड़ता आती है, सोचने-समझने की शक्ति मंद पड़ जाती है, इन्द्रियां शिथिल हो जाती हैं और मनुष्य पराधीन हो जाता है। नशा, लेने के पहिले तथा बाद में दोनों समय वह मन को शिथिल बना देता है । आजकल की अतिशय लोकप्रिय चाय भी एक नशा है और इसकी टेव पड़ जाने से भी व्रत में बाधा आती है ।
विषय- कषाय भाव प्रमाद के अन्तर्गत आते हैं। बीमारी की स्थिति में या आर्त दशा में क्रोध आने पर मनुष्य किसी को मार देता है या नहीं बोलने योग्य वचन बोलता है तथा अकर्तव्य का आचरण करता है । उस समय बाहर का जोश तो बढ़ जाता है परन्तु भीतर का जोश ठण्डा पड़ जाता है । पूर्वाचार्यों ने कहा है
"मज्जं विसय-कसाया, निद्दा विकहा य पंचमी भणिया । एए पंच पमाया, जीवा पाडं ति संसारे ||