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आध्यात्मिक आलोक तो मेरा भी वही हाल होगा । उसने राजा से सोचने के लिए कुछ समय मांगा और चिन्तन किया । चिन्तन के पश्चात् वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि कुर्सी के ही फेर ने मनुष्य को आज तक भुलाया है और घोखा दिया है । यदि मुझे मन्त्री बनना है तो भगवान् का ही क्यों न बनूं ?
स्थूलभद्र ने राजा नन्द को प्रत्युत्तर दिया कि राजन् ! मेरा विचार आत्म साधना का है । अब मैं भोग को रोग और धन-दारा को कारा मानता हूँ। अतएव मैं मन्त्रीपद के बन्धन में बंधना नहीं चाहता । कृपया आप किसी अन्य को इस पद पर नियुक्त कर देव । लोगों ने स्थूलभद्र को मूर्ख समझा और उसे समझाया कि
उत्तराधिकार के रूप में मन्त्रीपद मिल रहा है, अतः उसे ठुकराना योग्य नहीं है। किन्तु स्थूलभद्र ने सत्य को समझ लिया था तथा विरतिमार्ग का पथिक बनने का संकल्प भी कर लिया था । उसके दृढ़ निश्चय को देखकर लोग अधिक दबाव नहीं डाल सके । इससे प्रमाणित होता है कि महान कार्य करने के लिए प्रमादत्याग आवश्यक है । जो विषय-कषाय का त्याग करेगा वह अपना उभयलोक सुधार लेगा, यह सुनिश्चित है।