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आध्यात्मिक आलोक एवं गुरु की आवश्यकता होती है । समूह में एक व्यक्ति दूसरे का निमित्त बनता है, अतएव साधना के लिए संघ में रहना आवश्यक माना गया है। जो कौटुम्बिक जीवन के कार्यों से निवृत्त है, आर्थिक निश्चिन्तता और शारीरिक स्वस्थता वाला है, वह स्वाध्याय और साधना की ओर सहज बढ़ सकता है । अशान्त मन में स्वाध्याय द्वारा ज्ञान नहीं बढ़ाया जा सकता । उसके लिये शान्तमन आवश्यक है।।
विलासी और लोभी मनुष्य प्रमाद तथा व्यावसायिक उधेड़ बुन में लगकर पैसे से पैसा बढ़ाने की चिन्ता में व्यस्त रहते हैं । बढ़े हुए अर्थ की स्थिति में मनुष्य चैन से नींद भी नहीं निकाल सकता । कभी ऐसा सम्पन्न व्यक्ति लालसा से मन मोड़कर 'स्व-पर' के कल्याण साधन में लग जाय, तो सबका लाभ हो सकता है । करने योग्य समय में यदि सुकर्म नहीं किया गया, तो कब किया जावेगा ? दयालु सत्पुरुषों ने ठीक ही कहा है कि
"एक सांस खाली मत खोयरे खलक बीच,
कीचक कलंक अंग धोयले तो घोयले । वीतराग का स्मरण और ध्यान तो मानव का प्रारम्भिक कार्य है । पाप का संचय नहीं हो और पवित्र संस्कार बने रहें, इसके लिए जितना भी समय मिले, मनुष्य को सत्स्मरण करते रहना चाहिए।
स्थूल रूप से पाप की गणना १८ प्रकार से की गई है, जैसे- १. हिंसा, २. असत्य, ३. चोरी, ४. कुशील, ५. परिग्रह, ६ क्रोध, ७. मान, ८. माया, ९, लोभ, १०. राग, ११. द्वेष, १२. कलह, १३. मिथ्या आरोप, १४. चुगली, १५, निन्दा, १६. रति अरति, १७. माया मृषा और १८. मिथ्या विश्वास । हर एक पाप. को करने के भी ९ प्रकार हैं जैसे-हिंसा एक पाप है, मन, वचन, और काया से हिंसा करना, करवाना और हिंसा होने पर खुशी मनाना इस तरह हिंसा के नौ प्रकार हो गये । हम देखते हैं कि मांस खाने वाले अधिक हैं तथा प्राणियों को मार कर बेचने वाले कम, परन्तु मांस खाना और प्राणि वध करना दोनों में हिंसा एवं महान् पाप है । मांस खाने वाला स्वयं हत्या नहीं करता, पर हिंसा कराने और हिंसाका अनुमोदन करने का पाप उसे भी लगता है।
हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ये पांच बड़े पाप हैं । पाप कराने से भी कर्म का बंध ऐसे ही होता है जैसे स्वयं करने से। जानकारी प्राप्त होने तथा तदनुकूल आचरण करने से मानव पाप से बचता है । साधक साधु-संतो के पास कुछ
अर्थ (धन) लेने नहीं जाता, वरन् जीवन सुधारने जाता है, ताकि उसका ज्ञान बढ़े, ... दर्शन बढ़े और चारित्रिक योग्यता बढ़े तथा जीवन-निर्माण की और उसकी प्रवृत्ति हो।