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आध्यात्मिक आलोक
" ज्ञान द्वारा मनुष्य अपना जीवन मंगलमय बना लेता है । ज्ञान ग्रहण करने वाला ऊंचा उठता है । महाराज श्रेणिक व्रत ग्रहण नहीं कर सका, फिर भी सत्संग से उसको सुदृष्टि प्राप्त हो गई । महावीर स्वामी सरीखे, ज्ञान-विभूति को पाकर भी वह व्रत की दृष्टि से कोरा रहा और आनन्द ने व्रत ग्रहण कर जीवन सार्थक बना लिया। तो सत्पुरुषों के पास पहुँच कर जो गुण ग्रहण करता है वही ऊँचा उठता है। इस प्रकार ज्ञानादि ग्रहण करने से लौकिक भला होता है, फिर लोकोत्तर का क्या कहना ? लौकिक ज्ञान जीवन के व्यवहार की शिक्षा देता है, उसके साथ जो लोकोत्तर ज्ञान भी प्राप्त कर लिया जाय, तो जीवन की पूर्णतः साधना हो सकती है।
शकटार की कथा इस प्रकार है
श्रीयक ने महाराज नन्द से कहा कि मैंने महामन्त्री की गर्दन पर खड्ग चला कर, वह कार्य किया है, जो एक सेवक को करना चाहिए । श्रीयक की ओर नन्द विश्वास की दृष्टि से देखने लगे । राजा ने विवाह की तैयारी का हाल पूछा । तो श्रीयक ने प्रत्युत्तर में कहा कि हम और हमारे पिताजी ने आपके सम्मान में हथियार भेंट करने की बात सोची थी, किन्तु आपकी दृष्टि बदल जाने से वह विचार सर्वथा स्थगित कर दिया है और अब तो पिताजी भी इस संसार में नहीं रहे । यह सुन कर राजा सन्न रह गया । उसने सोचा कि दूतों के मुँह से सुनकर मैंने भ्रान्त विचार ग्रहण कर लिया और बड़ी भूल की जिसका भयंकर परिणाम आज यह देखने को मिल रहा है । इससे यह शिक्षा मिलती है कि सुनी सुनायी बातों पर सहसा विश्वास कर अमली रूप नहीं देना चाहिए । अन्यथा भ्रान्ति के कारण बड़े से बड़ा . अनर्थ हो सकता है।
इस अप्रत्याशित घटना से सम्राट नन्द को महान दुःख हुआ, मगर उससे अब क्या हो सकता था । अन्त में सम्राट नन्द ने मन्त्रीपद के लिए श्रीयक को आमन्त्रित किया । श्रीयक सम्राट की सेवा में उपस्थित होकर बोला कि राजन ! मेरे बड़े भाई अभी घर में हैं। वे ही इस श्रेय और सम्मान के वास्तविक अधिकारी हैं । मन्त्रीपद लेने की बातचीत वे ही जाने । श्रीयक की इस विनयशीलता तथा भ्रातृ-प्रेम का राजसभा में अद्भुत प्रभाव पड़ा । राजा के मन में विश्वास हो गया कि यह सब अच्छे संस्कार के प्रभाव हैं । राजा ने सोचा कि इस कुलीन वंश का बड़ा भाई भी अवश्य विशिष्ट प्रतिभाशाली व्यक्ति होगा । स्थूलभद्र को राज-सभा में बुलाने का राजा ने आदेश दिया । राजसभा के सभी सहधर्मी लोगों में उल्लास का वातावरण छा गया । उनकी मनोभूमिका में आदर का भाव आया । उनका साधर्मी वात्सल्य-प्रेम जागृत हो गया ।