________________
[३५]
समय का मूल्य समझो
मनुष्य यदि अपने पुरुषार्थ को बढ़ाकर साधना के मार्ग में अग्रसर हो जाय तो संसार सागर को सरलता से पार कर सकता है। भगवान महावीर स्वामी की वाणी, सूर्य की किरणों के समान असंख्य प्राणियों के लिए लाभदायक है । वाणी का काम प्रकाश देना है और आदमी का काम उसको ग्रहण करना है । जो उस दिव्य-ज्योति को ग्रहण करेगा, वह ज्योतिर्मय बन जायगा और जो उस प्रकाश का लाभ नहीं लेगा वह भ्रान्ति में भटकता रहेगा । जैसे-सूर्य प्रकाश ग्रहण नहीं करने वाले पर नाराज नहीं होता फिर भी वह प्राणी अंधकार से दिग मूढ रहता है, वैसे ही भगवान भी वाणी रूप प्रकाश नहीं लेने वाले पर रोष नहीं करते, केवल अज्ञान के कुप्रभाव से वह स्वयं ही अपना अहित कर लेता है । अज्ञान यदि जनक है, तो कुमति या कुदृष्टि जननी है। जब तक कुमति और अज्ञान का संग रहेगा, उसकी संतति बढ़ती रहेगी।
अज्ञान को दूर करना मानव का प्रथम कर्तव्य है । इसके दूर नहीं होने तक मानव पाप-पुण्य को नहीं पहचान पायगा । वह अर्थ और अनर्थ से उत्पन्न पाप को भी नहीं समझ पायगा । शिकारी भी यदि अपने काम को अनर्थ समझे, तो बड़ी विडम्बना होगी, महाजन का बच्चा यदि बात-बात में झूठ और धोखा का अर्थ समझले, तो दुर्भाग्य होगा । अज्ञानी अपनी अज्ञानता के कारण अनर्थ दण्ड को भी अर्थ दण्ड मान लेगा । फिर तो प्रयोजन से युक्त काम जो अर्थ दण्ड है और बिना प्रयोजन का अनर्थ दण्ड, इन दोनों में कुछ भेद ही नहीं रहेगा।
प्रमाद से आचरित सभी कर्म अनर्थ दण्ड हैं । अपध्यान से भी अनर्थ दण्ड होता है । आवश्यक निद्रा अर्थ दण्ड है और अनावश्यक अनर्थ दण्ड | यह प्रमाद कृत अनर्थ है । नहाने, धोने और खाने-पीने आदि की आवश्यकता अर्थ दण्ड है, किन्तु यही सीमातीत अनावश्यक रूप में अनर्थ दण्ड हो जाता है । यदि प्रमाद पर अंकुश नहीं होगा, तो ज्ञान कैसे मिलेगा तथा साधना की वृद्धि कैसे होगी? .