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आध्यात्मिक आलोक
153 वस्तुतः जीवित पिता का आदर न कर बाद में लोगों को खिलाना यह स्वयं और समाज को धोखा देना है। हो सकता है कि किसी समय में इन परम्पराओं का भी उपयोग रहा हो, किन्तु आज उनका उपयोग नहीं है । आज मरण के बाद खाने और खिलाने की अपेक्षा अच्छे कार्य में पैसे खर्च करना अच्छा माना जाता
भारतीय परम्परा यह है कि मनुष्य का व्यवहार ऐसा हो कि दूसरे को नहीं अखरे । पैदल, साईकिल, गाड़ी और मोटर सभी सड़क पर चलते हैं, किन्तु वे जब 'अपनी लाइन छोड़कर दूसरे की जगह में अनधिकार प्रवेश करते हैं, तब दुर्घटनाएं होती हैं। वैसे संसार में रोगी, त्यागी, व्रती और अव्रती सभी चलते हैं, किन्तु अधिकतर वे टकराते नहीं । वेग से टकराने वाला या बुराइयों से न बचने वाला बुद्धिमान नहीं कहा जा सकता । विकार की टक्कर मन को विक्षुब्ध बना देती है । देखिये उदाहरण - वररुचि लोभ के कारण शकटार से टकरा गए थे और वे प्रतिशोध की ताक में घात लगाए बैठे थे । शकटार के प्रदर्शन से उन्हें कुछ लाभ की आशा थी, अतः वे खुलकर इस अवसर का लाभ उठाने की धुन में थे।
ज्ञानी का मन पानी की सतह के समान होता है । बड़े जलाशय के पानी में-भैसे डूबी, बच्चों ने पत्थर फेंके, धोबी ने कपड़े धोए, पानी में तत्काल जरा हलचल हुई और फिर वैसा का वैसा, पानी की सतह ज्यों की त्यों हो गई । ज्ञानी भी उसी प्रकार हलचल के पश्चात् पूर्ववत् शान्त और गम्भीर बने रहते हैं। पत्थर या लोहे पर रेखा खींची जाय, तो निशान हो जाता है, परन्तु पानी में निशान नहीं पड़ता । पं. वररुचि भी अपने को पानी की तरह रखता, तो शकटार उसे दोलायमान नहीं कर सकते थे । ज्ञानी सज्जन की सदा अन्तरंग नीति होती है कि
कोई बुरा कहे या अच्छा, लक्ष्मी आवे या जावे । लाखों वर्षों तक जीऊ या, मृत्यु आज ही आ जावे ।। अथवा कोई कैसा ही, भय या लालच देने आवे ।
तो भी न्यायमार्ग से मेरा, कभी न पग डिगने पावे ।।
नीति की बातों को जीवन व्यवहार में लाना और उनको शब्द में दुहराना, दोनों में अन्तर है । हम लोग इसी आशा से लम्बे-लम्बे वक्तव्य देते हैं कि कोई न कोई भाई बहिन इनमें से तत्व ग्रहण कर अपना जीवन उन्नत बनावें ।
पं. वररुचि को शकटार से सकारण या अकारण पीड़ित होने से रोष है, किन्तु विरोध का विरोध से और गाली का गाली से प्रतिकार करने पर संघर्ष बढ़ता है।