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आध्यात्मिक आलोक आनन्द ने सत्संग, शास्त्र श्रवण, स्वाध्याय और मनन के बल पर अपना जीवन सुधार लिया । इस प्रकार गृहस्थ जीवन की आदर्श दशा का नमूना हमें आनन्द के जीवन से मिलता है । संसार के पदार्थों में रति अनुभव नहीं करने की वृत्ति यदि मन में जग जाय और चिन्तन का बल मिलता रहे तो साधक अपने जीवन का रूप बदल सकता है।
अब कथा भाग की बात देखिये
महामन्त्री शकटार महाराज नन्द के रोष का पात्र बन गया, इसलिए उसके हृदय में आघात लगा । फिर भी वह उतना आकुल नहीं हुआ जितना कि इस परिस्थिति में दूसरे हो सकते थे । वह आज तक महाराज नन्द के मन्त्रित्व के पद को अपनी पैतृक सम्पत्ति समझता था और सारे राज्य एवं उसकी प्रभुता को अपनी मानता था किन्तु उसे अब मालूम हुआ कि यह उसका भ्रम था । यदि वह स्थायी होता तो, राजा का विश्वास क्यों खोता और विश्वास खोकर भी इतना दयनीय क्यों बनता जितना कि उसे बनना पड़ा । उसने वास्तव में निज को निज नहीं समझा, पर को निज समझता रहा, यह समय आने पर उसे भान हुआ । यदि यह बात उसको पहले ही समझ में आ जाती तो उसका जीवन ही दूसरा होता ।
अज्ञानता और मुर्खता के कारण मनुष्य दूसरे मनुष्य से संघर्ष कर जाता है । संघर्ष की घड़ी में उसे यह भान नहीं रहता कि जीवन क्षण भंगुर और नाशवान है । हम जिस वस्तु के लिए संघर्ष रत होते हैं न तो उसका स्थायित्व है और न अपना ही । यहां सब कुछ चंचल और चलायमान है । जिस नन्द के राज को शकटार अपना मानता था आज वही उसके लिए दुःखदायी बन गया । जैसे साधारण मनुष्य अपने छोटे परिवार के लिए झूठ बोलता, मामले, मुकदमे, चोरी ठगी आदि करता है, वैसे ही शकटार ने भी राज्य के लिए ऐसे काम किए जो आज उसके हृदय में शुल की तरह सिहरन पैदा करते हैं । आज मनुष्य कितनी भूल में पड़ा है जो छोटे से परिवार के लिए अहर्निश अनेक अनेक पाप कर्म करता है। विवेक रूपी पुत्र तथा सुमति रूपी सखी से जो मनुष्य प्यार नहीं करेगा, वह भटक जायेगा । यदि यह समझ में आ जाय तो मानव स्वयं का और समाज का भी हित कर सकता है । राजा के क्रोध ने शकटार के मन में सुमति पैदा कर दी । उसने श्रीयक को कहा - "बेटा । जैसा कि मैंने तुम्हें पहले बताया है, कल मेरे दरबार में उपस्थित होने पर तुम वैसा ही करना । इसी से अपना सब काम बन जाएगा ।"
जीवन में जब तक स्वार्थ नहीं छूटता, तब तक मानव जीवन को शुद्ध बनाने में समर्थ नहीं होता । साधारणतः भौतिक वस्तुओं में रति-राग का नाम स्वार्थ