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[३४ ] अनर्थ दण्ड और ज्ञान साधना
संक्षेप में कहा जाय तो संसार के मनुष्यों के दो ही प्रकार होगे । एक भूतवादी या नास्तिक और दूसरे आत्मवादी आस्तिक | इनमें से जो आस्तिक हैं वे ही साधना मार्ग में लग सकते हैं । जो स्वर्ग, नर्क, बंध, मोक्ष और आत्मा परमात्मा आदि को नहीं मानता, उसके पांव साधना-पथ पर कैसे बढ़ेगे ? साधना के मार्ग में चलने के पूर्व यह निर्णय कर लेना होगा कि मैं कौन हूँ भूतवादी (भौतिक वादी) या आत्मवादी । विश्वास और श्रद्धा नहीं होगी तो मानव न तो सही मार्ग पर चल सकेगा और न जिज्ञासु ही बन सकेगा । अज्ञान का पर्दा दूर करने से ही
आत्म-स्वरूप का भान होता है और साधक जीवन सुधार के मार्ग पर लगता है । जिसके पास आत्मवाद या अध्यात्मवाद की कुंजी है वह चिन्तन करेगा, विचारेगा और
आगे बढ़ने के लिए प्रवृत्त होगा । साधक चाहे देश विरति वाला हो या सर्व विरति वाला, श्रावकधर्मवाला हो या श्रमण धर्म वाला, वह आत्म स्वरूप को प्राप्त करने की
चेष्टा अवश्य करेगा । उसके मन में तरंग उठेगी कि पाप हमारे जीवन को बिगाड़ने वाला है, अतः उसका त्याग करूं । वह पूर्ण त्यागी नहीं तो देश त्यागी याने श्रमणोपासक बनने की चेष्टा अवश्य करेगा।
आख्यान के पीछे 'प्रति' लगाने से प्रत्याख्यान बनता है । प्रत्याख्यान का अर्थ निषेध होता है । ज्ञानी मनुष्य दुष्प्रवृत्तियों का सर्वथा प्रत्याख्यान करता है, मगर जब कारणवश वह उनका सर्वथा त्याग नहीं कर पाता, तब देश-विरति मार्ग अपनाता है । यह मार्ग पूर्ण प्रत्याख्यान की तरह सर्वथा शुद्ध नहीं है फिर भी एक दम कुछ नहीं करने के बजाय कुछ करना अच्छा है और "शनैः पन्थाः शनैः पन्थाः, शनैः पर्वत लंघनम्" की उक्ति को चरितार्थ करने वाला है । आवश्यकता घटाकर पाप को कम करना उसका लक्ष्य है।