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आध्यात्मिक आलोक
151 लौकिक और लोकोत्तर दो प्रकार की हानियां होती हैं । लौकिक हानियों के अन्तर्गत द्रव्य, बल, बुद्धि, मान आदि की हानियां आती हैं और ज्ञान, दर्शन, चरित्र, नीति एवं भावनाओं की हानि लोकोत्तर हानियां हैं । बुद्धिमान मनुष्य सोच-समझकर निर्णय लेता है कि किस कार्य में हानि है या लाभ | समाज में जन्म, मरण एवं मृत्यु पर अनेकों गलत रूढ़ियां चल रही हैं, चाहे वे हानिकारक ही हों, किन्तु साधारण मनुष्य इस पर विचार नहीं करते । महिलाएं तो गलत रीति-रिवाजों में और भी अधिक डूबी रहती हैं । जलवा पूजना, चाक पूजन, जात देना, ताबीज बांधना, देव और पितर की पूजा करना, मरे हुए के पीछे महीनों बैठक रखना और रोना ये सब कुरीतियां हैं, जो समाज में दृढ़ता से घर बनाए हुई हैं ।
मनुष्य देवाधिदेव भगवान् को तो भूल जाते और तमोगुणी देवों की महिमा करने लगते हैं। जन्म से मरण तक शुभकर्मों में लग सकना मुश्किल होता, परन्तु हवन, अनुष्ठान आदि चक्कर में लोग धन खर्च कर देते और जरूरत की जगहों में मुंह देखते रहते हैं । विवेक से इतना तो सुधार सकते हैं । गांवों में सदगुणों एवं नीति-धर्म की शिक्षा के लिए प्रबन्ध करते लोग हिचकिचाते हैं, परन्तु भोज में अधिक लोगों को खिलाना शासन के विरुद्ध होते हुए भी अधिकारियों से सांठगांठ कर जीमणवार करने में गौरव का अनुभव करते हैं । जो रकम अधिकारियों को नियम विरुद्ध काम करने के लिए दी जाती है, उसकी किसी को कानों कान खबर तक नहीं हो पाती, किन्तु किसी असमर्थ छात्र की पढ़ाई में, कभी थोड़ी भी सहायता की गई, तो उसे सहस्र मुख से कहते फिरेंगे । अधिकारियों को गुप्तदान बड़ी चतुराई से दिया जाता है। उसमें राज नियम की चोरी और समाज का अहित होता है, इसकी भी परवाह नहीं की जाती । यह कार्य उस कृषक के कार्य के समान है, जिसके कुंए का पानी तो नाली में बहे और क्यारियां सूखी रहें।
गरीब छात्र, वृद्ध, अपंग और विधवाओं की, जो असहाय एवं परमुखापेक्षी हैं, सहायता नहीं की जाती । ऐसे साधनहीन जन तो सरकार का मुंह ताके और समाज की सम्पदा रिश्वतों के प्रवाह में लाखों की संख्या में खर्च हो जाय | यह कैसी बुद्धिमत्ता और कैसा धन का उपयोग है ? आत्मा से पाप छिपाया नहीं जाता । समाज में एक तरफ तो लड्डू-कलाकंद का भोग उड़ाया जाता और दूसरी और लोग भूख से तड़प कर दम तोड़ते हैं । विवेकशील पनियों को इस तथ्य से आंख मूंद कर नहीं चलना चाहिए।
मनुष्य के ऊपर माता, पिता, देश, जाति, संघ और धर्मगुरुओं का भी ऋण है, जिससे उसे उऋण होना है । समाज में एक आदमी दुःखी है, तो समाज के