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आध्यात्मिक आलोक न बनाना; बल्कि घटाने में निमित्त बनाना, यही आनन्द का आदर्श था । इसे . लोक-नीति और आध्यात्मनीति का समन्वय कह सकते हैं।
सुधरा व्यक्ति अपने जीवन को ऊपर उठाने के साथ ही साथ सामाजिक जीवन को ऊंचे उठाने का भी कारण बनता है । मनुष्य यदि ममता और वासना को न घटावे, तो महारंभ के बड़े-बड़े कारणों से नहीं बच सकता । प्रत्येक गृहस्थ आनन्द के समान यदि व्रत धारण कर अपनी आवश्यकताओं को घटाले तो समाज का विषाक्त वातावरण आसानी से बदल सकता है। आनन्द का जीवन सीधा, सादा, सरल एवं सामान्य नहीं था । उसका मनोबल मजबूत तथा प्रवाह में बहने वाला नहीं था । प्रवाह में बहने वाला नीति-धर्म का निर्वाह कर पाप नहीं घटा सकता तथा नीति और धर्म को सुरक्षित रखने में भी समर्थ नहीं होता। .
संसार में तीन प्रकार के पुरुष होते हैं - नदी की धारा में बहने वाले (२) दृढ़ मूल वृक्ष की तरह अडिग रहने वाले और ६) धारा के अभिमुख चढ़ने वाले । खंभे की तरह अड़े रहने वाले स्थिति स्थापक होते हैं। सत्वहीन या बलहीन प्राणी, तिनके के समान बहने वाले होते हैं, किन्तु जो प्रवाह का सामना करते वे पराक्रमशील, साहसी, बलवान, सामर्थ्यवान व कुशल कहलाते हैं । वे मछली के समान प्रवाह का सामना करने वाले होते हैं । भले, नदी के वेग में हाथी बह जाय, परन्तु मछली सामने बढ़ती चलती है। कारण उसको अपने आपको संतुलन का अभ्यास है। किसी कवि ने ठीक ही कहा है
जो जाके शरणे बसे, ताकी ताको लाज |
उल्टे जल मछली चढ़े, बयो जात गजराज ।। इसी तरह मनुष्य ऐसा प्राणी है, जो अभ्यास के बल पर ज्ञान और विवेक की ज्योति पा ले, तो अज्ञान, मोह एवं रूढ़ि प्रवाह के मुकाबले आगे बढ़ सकता है, लक्ष्य तक पहुंच सकता है। नया या पुराना कैसा ही प्रवाह हो, जिस व्यवहार से अज्ञान की पुष्टि हो, धार्मिकनीति नष्ट हो, ज्ञानवान उसमें आंख मूंद कर नहीं बहेगा, बल्कि विवेक से काम लेगा । नयी हो या पुरानी, जिसमें स्वपर का हित हो, उसी परम्परागत व्यवहार का विवेक पूर्वक अनुशीलन करेगा । अहितकर को छोड़ देगा। जैसे कहा है
पुराणमित्येव न साधु सर्व, नचापि सर्व नवमित्यवयं । ,
सन्तः परीक्ष्यान्यतरत् भजन्ते, तयोर्दयोरेकतरंजहाति।। . . : नये और पुराने व्यवहार में कौन हानिकारक तथा कौन लाभदायक है यह विवेक तथा परीक्षण से ही समझा जायेगा ।